पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/२६७

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काव्य-निर्णय अस्य तिलक इहाँ भैम के संग अन्योक्कि संकलित है। पुनः उदाहरन जथा- पंधन की किरने लैहरे-री, हरी-री लतॉन को तूलि रही है। नीलम, माँनिक-भाभा अनूप,' सोंसन -लालँन हूलि रही है। हीरन, मोतिन की दुति 'दास'जू बेला-चमेली-सी फूलि रही है। देखि जराव को माँगन राव को, भौरन की मति भूलि रही है। अस्य तिलक इहाँ भैम के संग उद्दात अलंकार को संकर है औ फुलवारी को रूपक व्यंगि है। पुनः उदाहग्न जथा- देखत ही जाके बैरी-बूंद गजराजन के, धीर न धरत जस जाहर जहाँन है। गज-मुकतॉन को खिलोनाँ करि डारत है, उमगि उछाह सों करत जब दॉन है॥ बाहन भवानी को पराक्रम बसत और अंगन में सूरता को प्रघट प्रमान है। हिंदूपति साहब के गुन में बखाँने, मृगराज जिय-जीने के हमारौ गुन-गाँन है। अस्य तिलक इहाँ सबद की सक्ति ते मालंकार है, प्रतीपालंकार ब्यंगि है। वि०-"अलंकाराचार्यों ने वाधित भ्रम के रूप में भी यह अलंकार माना है। वाधित-"किसी वस्तु में अन्य वस्तु का भ्रम होकर फिर उसके निवारण हो जाने पर" कहा है और कन्हैयालाल पोद्दार ने इसका निम्न-लिखित उदाहरण दिया है- जानकर कुछ दूर से फल-पत्र छाया ताप हर । शुटक-पट के निकट भाये भ्रमित हो कुछ पथिक, पर- पा०-१.(का० (३०) किरनाली-खरी-री, हरी.... २. (को०) (३०) (प्र०) अमूपम...। ३. (का०) सोसनी,... ४. (का०) (३०) (प्र०) रहत . 1 ५. (३०) (प्र०) जबै...। ६. (को०) (०) औरै... (प्र०) उरु । ७. (का०) गुमान है । 4. (३०) की...!