पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/२७०

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अथ दशमोल्लास: अथ बितरेक, रूपकालंकार बरनन जथा । बितरेको-रूपको के,' भेद अनेक प्रकार । 'दास' इन्हें उल्लेख-जुत, गॅनों तीन निरधार ॥ वि०-"दासजी ने इस दशवें उल्लास में" ( भेद-प्रधान ) व्यतिरेक, (अभेद प्रधान ) रूपक, परिणाम और उल्लेष नाम के चार अलंकारों का उनके भेद-विभेद-सहित वर्णन किया है। इन चारों में 'व्यतिरेक' और रूपक सर्वमान्य हैं और परिणाम तथा उल्लेख के आदि-जनक प्राचार्य रुग्यक हैं। परिणाम और उल्लेख का वहाँ नामोल्लेख नहीं है। हाँ, रुस्यक ने अभेद प्रधान वर्ग के अंतर्गत आरोप-मूलक अलंकार की श्रेणी में रूपक, परिणाम और उल्लेष को मानते हुए व्यतिरेक की गम्यमान-औपम्य वर्ग की तोसरी श्रेणी-भेद- प्रधान में गणना की है। विशेष रूप से देखने पर ये चारों अलंकारों जैसा कि दासजी ने माना है-ौपम्य-मूल वर्ग की शोभा है, कारण-रूपक, परिणाम और उल्लेष में 'सादृश्य वाच्य' है और व्यतिरेक में वह ( सादृश्य ) गम्यमान है-छिपा हुआ है, इसलिये इनका श्राप-द्वारा एक स्थान पर उल्लेख है। संस्कृत-साहित्य में रूपक का प्रथम तदनंतर व्यतिरेकादि का वर्णन श्राता है। दासजी ने रूपक से प्रथम व्यतिरेक का कथन - वर्णन क्यों किया, वह अज्ञात है। फिर भी इसके प्रथम वर्णन का हेतु -उपमान की अपेक्षा उपमेय के उत्कर्ष- कथन का कारण हो सकता है । अर्थात् , इसमें उपमान की अपेक्षा उपमेय के गुणों का प्राधिक्य होता है । अस्तु, "प्रथम - अथ वितिरेक लच्छन जथा- पोषन करि उपमेह को, दोन करि' उपमान। . नहिं समान कहिए तहाँ, है 'पितरेक' सुजॉन ।। वि०-"अर्थात् महाँ उपमान की अपेक्षा उपमेय का अधिक उत्कर्ष-पूर्ण वर्णन हो, वहाँ यह अलंकार होता है । व्यतिरेक ( बितरेक ) का अर्थ "विशेष- -~१.( ० ० प्र०) व्यतिरको भी. स्की , मेंद.... ( मी० म०) वितरक भरू कपको ... ( का० ) ३० ३ (प्र.) स्यतिरेकडू रूपक के...। २. (म० ) ..... . . ..