पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/२७२

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काव्य निर्णय २३७ एक बात और, वह यह कि "व्यतिरेक के स्वरूप और भेद-निरूपण में प्राचार्य मम्मट की अपने-से प्राचीन अलंकार-प्राचार्यों की अपेक्षा कुछ भिन्न दृष्टि रही क्योंकि व्यतिरेक का 'भामह' कृत रूप था- उपमान की अपेक्षा उपमेय में विशेष-अपादन...। अतः दंडी को व्यतिरेक के इन दोनों रूप-जिसमें उपमेय का स्पष्टतः उत्कर्ष और उपमान का अपकर्ष यत्किंचित् ही सही, अभिप्रेत अवश्य ये । उदभट मान्य--व्यतिरेक में उपमानोपमेय दोनों के विशेष-अपादान का स्पष्ट रूप से उल्लेख मिलता ही है और रुद्रट तथा रुस्यक को भी व्यतिरेक की रूप- रेखा निर्धारित करने में उपमेयोपमान दोनों का यथा-संभव प्राधिक्य बतलाना अभीष्ट था । श्रस्तु, मम्मट ने इन प्राचीन दृष्टियों को ध्यान में रखते हुए व्यतिरेक के प्रति अपना नया दृष्टिकोण उपस्थित किया- अर्थात् , उन्होंने व्यतिरेक में उपमान की अपेक्षा उपमेय के प्राधिक्य की अथवा उत्कर्ष की योजना की और इन्हीं की विविध संभावनात्रों अर्थात् उपमेय के उत्कर्ष और उपमान के अपकर्ष के निमित्तों को, उपादान और अनुपादान के विश्लेषण से ( व्यतिरेक को) चौब स प्रकार का बतलाया । राजानक ने भी यही परिपाटो अपनायी, इन्होंने भी श्री मम्मट का अनुसरण किया। फिर भी न कहना होगा कि श्री मम्मट को रुद्रट-निर्दिष्ट “उपमानाधिक्य" रूप के खंडन में ही ( उन्हें ) व्यतिरेक निरूपण की नयी प्रेरणा मिली .....इत्यादि । भारती-भूषण-रचयिता केडिया' जी व्यतिरेक के "उपमेयोमान में उत्कर्षा-- पकर्ष-रूप से दो-ही प्रमुख भेद मान अन्य भेदों को अनावश्यकता बतलाते हुए अपनी टिप्पणी में कहते हैं कि “यद्यपि किसी-किसी प्रथ में उपमेय की अपेक्षा उपमान को उत्कर्षता तथा उपमेयोपमान वाक्यों में किंचित् (न्यूनाधिक) विलक्षणता के वर्णन में भी 'व्यतिरेक' माना है और कहा है कि प्रस्तार-भेद से इसके शतशः प्रकार हो सकते हैं तथा 'अलंकार-श्राशय में इसके बत्तीस (३२), प्रकार के लक्षण एवं उदाहरण भो लिखे हैं, तथापि इन्हें अनपेक्षित समझते हुए हम ( केडिया जी ) ने इतना अधिक विस्तार न कर प्रायः प्राचीन ग्रंथों के अनुसार यहाँ मुख्य दो-ही भेद लिखे हैं (भा० भू० पृ० १८२)।" दासजी ने भी व्यतिरेक के प्रथम पोषन-दोषन रूप दो भेद और उनके लक्षण-उदाहरण कह कर 'शब्द-शक्ति से' तथा 'व्यंग्याथ से चार प्रकार का माना है, यथा- "चारि भौति बितरेक है, ये जानत सब कोह ॥" पर ब्रजभाषा-रीतिकाल के कवि "चितामाणि" ने अपने "कवि-कुल-कल्पतरु" नामक ग्रंथ में व्यतिरेक के संस्कृतानुसार चौबीस भेद-ही मानते हुए कहा है--