पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/२७३

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कामा-निर्णय ___-: "अधिक जहाँ उपमेप कपि, घट बरनत उपमान । ____ तहँ बितरेक बनाइके, बरनत सुकवि सुजान ॥" कबित्त- "उपमेह-गत उतकरख, औ अपकरख जहँ उपमान की। जहँ होत है इन दुहुँन को इत कथन सुकवि सुजॉन कौ ॥ कहुँ कथन होइ दुहुँन को, कहुँ एक-ही कों जाँनिऐं। कहुँ सबद ते, कहुँ भरथ ते, माच्छेप ते कहुँ मानिऐं ॥ ९ चारि-चारि-जुत होत हैं, बारह-चार बिसलेस सों। ए भेद सबै "बितरेक' के मैंन जाँनि लेहु सु बिसेस सों॥" अस्तु, भाषा-भूषण (जसवंत सिंह) तथा 'ललित-ललाम' (मतिराम) में एक और पदमाभरण (पद्माकर) में तीन भेदों का उल्लेख मिलता है। पदमाभरण, यथा- "जहँ प्रबन्ध श्री बर्य में, कुछ बिसेस-"वितरेक"। अधिक, न्यून, सँम-भेद सों, विविध कहत कबि नेक ॥" यही नहीं 'व्यतिरेक' और 'प्रतीप' की भिन्नता प्रदर्शित करते हुए इन पाचर्यों का अभिमत है कि "व्यतिरेक में जहाँ उपमान की अपेक्षा उपमेय में गुण की अधिकता वर्णन की जाती है, वहाँ 'प्रतीप' में उपमेय को उपमान कल्पना कर उपमेयं के उत्कर्ष का वर्णन किया जाता है। इसकी 'माला' का भी वर्णन मिलता है और ध्वनि का मी। पुनः एक बात और वह यह कि 'प्राचार्य रुद्रट' और 'रुपक उपमेय को अपेक्षा उपमान के उत्कर्ष में 'व्यतिरेक' मानते हैं और विश्वनाथ चक्रवर्ती इनके अनुयायी हैं । काव्यादर्श और कुवलयानंद के कर्ताओं ने भी अनुभय पर्यवमायी. अर्थात् उपमेय के उत्कर्ष और उपमान के अपकर्ष-बिना भी उपमेपोयमान में किसी प्रकार के भेद कथन करने मात्र में उक्त अलंकार माना है।" अथ प्रथम वितरेक-भेद बरनन जथा-- कहुँ पोखन, कहुँ दूखनों' कहें कहुँ नहिं दोइ । चारि भाँति 'बितरेक' सो ये जॉनत सब कोइ॥ पा०-१. (का०) (३०) (प्र०) दूखनें...। २. (का०) (०) (प्र०) दोउ । ३. (का०) .(३०)(प्र०) है। ४. (का०) (३०) (१०) कोउ ।