पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/२९६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२६१ काव्य-निर्णय न्यारी-न्यारी दिसि च्यारी' चपला-चमतकारी, ___बरने अनारो ए कटारी-तरबारी हैं3 ॥ केकी-किलकारी 'दास' बूदन सरारी पोन- दुंदभि धुकारी तोप" गरज डरारी हैं । बिन गिरिधारी, झर भारी मिस मेंन ब्रज- नारी-प्राँनहारी देव-दलँन उतारी हैं। अस्य तिलक इहा हूँ..'ना, मता मद-धारी हैं ' ते अपन्हुति व्यगि है। अथ रूपक-रूपक जथा-- गिल गए सेन,जहाँ-ई-तहाँ छिल गए, मिल गए, चंदँन भिरे हैं इहि भाइ सों। गाढ़े कै रहे हैं। सहे सनमुख तुकाँन-लीक, लोहित-लिलार लागी छींट अरि घाइ सों ।। श्रीमुख-प्रकास तँन 'दास' रीति साधुन की, अज-हूँ लो लोचन तमीले रिसि-ताइ सों। सोहै सब 'अंग सुख-पुलक सुहाए हरि,२ आए जीति सँमर सँमर महाराइ सों। वि० -"दासजी ने इस 'रूपक-रूपक' के उदाहरण को प्रथम छठवें उल्लास में 'स्वतः संभवी अलंकार ते वस्तु व्यंगि' के उदाहरण में भी दिया है, और वहाँ तिलक रूप में कहा है कि 'इहाँ नाइका रूपक-उत्प्रक्षा अलंकार करिके नाइक को अपराध जाहर करति है, यै ( अलंकार ) ते बस्तु गंगि है।' खंडिता नायिका की उक्ति ।" खंडिता नायिका के प्रति पीछे बहुत कुछ उसके भेदादि के साथ लिखा जा चुका है । यहाँ उक्त नायिका का उदाहरण-स्वरूप 'अष्टछाप' के प्रमुख कवि 'और कवि गढ़िया, 'नंददास' जड़ियां की रचना उद्धृत करते हैं, यथा- पा०-१. (का०) (३०) (प्र०) चारी | २. (३०) अन्यारी' । ३. (सं० पु० प्र०) (का०) (प्र०) है। ४.(३०)(प्र०) ( का०) दुदुभी · । ५. (प्र०) तेबै... । ६. (सं० पु० प्र०) (का० ) (प्र. ) है । ७.( का० ) (३०) (प्र०) बिना" | म. (सं० पु० प्र०) ( का०) (प्र.) है। ६. (का० ) (३०) (प्र०) स्वेदन" । १०. (सं० पु० प्र०) (०) हीं." । ११. (३०) (सं० पु० प्र०) सर्वाग, सुख । १२. (३०) हरी।