पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/३१७

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२८२
काव्य-निर्णय

२८२ काव्य-निर्णय उदाहरन जथा- जात' सबै हुते माघ की रात, निदाघ के चौस को साज-सजावते । फेरि बिदेस को नॉम न लेते, जो स्याँम दसा यै देखन पाबते ।। 'दास' कहा कहिऐ बँनि-ही-सुनि, पीतँम पावते, पीतँम आबते । जात भयौ' पहले तन-ताप, औ पीछे मिलाप भयौ मॅन-भावते ।। वि०-"दामजी का यह उदाहरण जहाँ "अत्यंतातिशयोक्ति' का उत्तम उदाहरण है, वहाँ नायिका-भेदानुमार "अागमष्यत्पतिका नायिका" (जिसका प्रियतम विदेश से आनेवाला हो, अथवा उसके आने की बात सुन कर प्रसन्न होने वाली) का है। इसे आगच्छत्यतिका नायिका भी कहते हैं । अागमष्य- त्पतिका वा आगत्पतिका नायिका के प्रति ब्रजभाषा-रीति प्रथों में मतभेद है। कोई इन्हें प्रथक-प्रथक् और कोई इन्हें एक-ही मानता है। इन प्रथक् मानने वाले प्राचार्यों में- सैय्यद गुलाम नवी 'रसलीन' प्रधान हैं । दासजी भी इसी मत के अनुयायी हैं । अतएव रसलीन ने "श्रागत्पतिका" नायिका के प्रागमष्य- त्पतिका, श्रागच्छत्पतिका एवं श्रागसतिका रूप तीन भेद माने हैं । यही नहीं, आपने इस नायिका के साथ-'संजोग-गर्विता अागत्यतिका' रूप से एक नया भेद और माना हैं तथा लक्षण दिया है- "प्रिय आयौ परदेस ते, गरब करति जो बाल । सो "संजोगिनिगरबता", बरनत बुद्धि-बिसाल ॥" -रस-प्रबोध अस्तु, जिस ( नायिका ) का प्रियतम विदेश से पाकर मिल गया हो, वह 'आगत्पतिका' जो प्रियतम को ( केवल ) आया हुअा-ही सुने, वह- आगच्छ- त्पतिका' और जिसका प्रिय विदेश से आनेवाला हो-जिसके आने को बात-ही सुनी हो, वह "पागमष्यत्पतिका" नायिका कही गयी है । उदाहरण, यथा- "प्रिय-आगम सुनि पथिक-मुख, उमग्यौ अंग सँनेह । नख ते सिख लों बाल की, भई चीकनी देह ॥" और सामान्या (गणिका ) भागमण्यत्पतिका नायिका का उदाहरण और भी सुंदर है, जैसे- "भाबत सुनि परदेस ते, धनी मित्र प्रति भास । बारबिलासिनि के भयौ, बारंबार बिलास ॥" --स-प्रबोध पा०-१. ( का० )(प्र०) जाते ...। २. ( का० ). निदाह...! ३. (३०) सु...! ४. (सं० पु० प्र०) (३०) भई.... ५. ( वे ० ) वह ताप तो, पीछ.... .