पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/३२३

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२८८
काव्य-निर्णय

२८८ काव्य-निर्णय किया जाय, वहाँ-"रूपकातिशयोक्ति" कही जाती है। दासजी का कहना है कि "जहाँ प्रसिद्ध काव्य-गत उपमान का ही कथन हो, उसी के द्वारा उपमेय का लक्ष्य कराया जाय वहाँ उक्त अलंकार कहा जायगा । रूपकातिशयोक्ति और रूपक के सामंजस्य ( समानता ) पर अलंकाराचार्यों का कहना है कि "रूपक में उपमेयोपमान दोनों कहे जाते हैं, वहाँ अभेद न होने पर अभेद मान लिया जाता है, रूपकातिशयोक्ति में केवल उपमान के कथन से अभेद न होने पर भी अभेद निश्चय-सा होता है, क्योंकि यहाँ केवल उपमानों का ही उल्लेख होता है, उन्हीं में उपमेयों का निगरण (निगल जाना) हो जाता है । अभेद-ज्ञान निश्चयात्मक यहीं है । रूपकातिशयोक्ति के साहित्यकारों ने दो भेद माने हैं - "शुद्ध, और साप- हव" । जहाँ अपह्नव की रीति के बिना उपमान का उल्लेख हो, वहाँ "शुद्ध" और जहाँ अपह्नव की रीति से उपमान का उल्लेख हो-वर्णन हो, तब वहाँ "सापह्नव" कही जायगी। यही नहीं, साहित्यकारों का यह भी कथन है कि "कभी-कभी रूपकातिशयोक्ति और वाचकोपमेयलुप्ता के उदाहरणों में भी अधिक- तया साम्यता नजर आ जाती है, अस्तु “रूपकातिशयोक्ति" में जहाँ उपमान प्रसिद्ध और उसका वर्णन लोकोत्तरता पूर्वक रहता है, वहीं वाचकोपमेयलुप्ता में उपमान का धर्म के साथ उल्लेख रहता है । यही इनकी भिन्नता है।" अस्य उदाहरन जथा- 'दास' देव-दुरलभ सुधा, राहु-संक निरसंक। सकल-कला कब ऊगि है, बिगत कलंक मयंक । वि०-"दासजी का यह शुद्ध रूपकातिशयोक्ति" का उदाहरण है, बिना अपह्नव की रीति के उपमान चंद्र का कथन है, उपमेय 'मुख' का नहीं, अतएव शुद्ध है। पुनः उदाहरन जथा- चंद में पोप अनूप बद, लगी, रागन में उमड़ी अधिकाई। सो ती कलिंदजा की कछु होती, जो कोकन के दरम्यान लखाई॥ पा०-१. ( का० ) (३०) (प्र० ) की.... २. ( का० ) (३० ) (प्र० ) होति है, कोकन....