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काव्य-निर्णय

काव्य-निर्णय २८६ दास जू' कैसी चमेलो खिली,' लगी फैलि' सुवास-हु की रुचि राई । खंजन कॉनन - ओर चले, अबलोकत - हो हरि साँझ सुहाई ।। वि०-"रूपकातिशयोक्ति का उदाहरण महाराज रघुराज सिंह रीवां का भी बड़ा सुंदर है, यथा- "जुगल कुहू के बीच देखी रेख जोन्ह-ही की, ताके अध-परध इंदु-अंक में अवनि जात । साबक - भुजंग जुग जोहत जुगल ओर, ___ जलचर जुगल जलूस के न ठहरात ॥ 'रघुराज' पारसी है ताके बीच बारिज है, सुक-मुख लीने एक मध्य में सु जलजात । बिंबफल - भीतर बिलोके हैं #नार - बीज, कौतुक सकल ससि - मंडल में दरसात ॥" अथवा- "राबरे बिरह सुँनों साँवरे - सलोंने गात, जो-जो ब्रज जात तिन्हें कौतुक मिलत हैं। काकली न सुनी परै कुज की गली के बीच, बिंब - मुरझाइ कुद - कली न खिलत हैं। देखिए अचंभौ चलि चंद - बंम के बतंस, हंस हारि रहे कहूँ नेक न हिलत हैं। कनक लता 4 कंज सूखि रौ कृपा-पुंज, ता 4 खंजरीट बैठि मोंती ऊगलत हैं।" अथ उत्प्रेच्छा में अतिसयोक्ति जथा- 'दास' कहाँ-लों कहों में बियोगिन के तन-तापॅन की अधिकाई । सूखि गए सरिता, सर, सागर, सर्ग, -पताल धरा-अकुलाई ॥ काँम के बस्य भयौ५ सिगरौ जग, जाते भई मॅनों संभु-रिसाई। जारि के फेरि सँवारन कों, छिति के हित पाबक-ज्वाल बढ़ाई। वि०-"दासजी का यह छंद “दूती" कृत कर्म विरह-निवेदन का उदा- हरण भी कहा जा सकता है। दूती- पा०-१. (३०) खुली । (प्र. ) खुलै...। २.(का० ) फैले। (३०) (प्र.) फैली...| ३. (सं० पु० प्र०) (का०) है। (३०) हो...। ४.( का०) (३०) मकास.... (सं० पु० प्र०), मोनि-अकास-धरा...। ५. (का० )(वे. ) भऐ सिगरे जग ।