पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/३२५

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काव्य-निर्णय

२६० काव्य-निर्णय "जो सिय है दूतत्व में, भतिसै परम प्रवीन !" और कार्य, यथा- "उभै काज दूतीन के, सब कवि किए बखान । बिरह - निवदन एक भरु संवहन सुखदान ॥" -शृंगार-सुधाकर दासजी के इस छंद की भाँति, किसी अज्ञात कवि का यह छंद भी 'विरह- निवेदन' रूप सुंदर है, जैसे- "भाज बरसाँने हों बिलोकिबे कों गई सोतो, नई दसा देखी में अनंग भागि-बोरी की। लूक-सी लगति पोंहँचति परिसर पास, पेंटि भोंन-भीतर जरै सो भौति होरी की ॥ राज करौ गोकुल मिजाज रावरे को यह भकह-कहाँनी-सी करी है चित-चोरी की। जरिजाइ हलक, फलक परें प्रोउँन में, बिरह-बिथा की कथा कहों जो किसोरी की ॥" अथ उदात्त अलंकार लच्छन जथा- संपति को अत्यक्ति कों, सब कबि कहै 'उदात' । जहँ उपलच्छन बढ़ेन को, ताहू की ये बात ॥ वि०--'जहाँ संपत्ति की अत्युक्ति कही जाय, लोकोत्तर समृद्धि का वर्णन किया जाय, अथवा महान् पुरुषों का चरित्र वर्ण्य-वस्तु का अंग मात्र कहा जाय, तब वहाँ 'उदात्त' अलंकार कहा जाता है। उदात्त का शब्दार्थ है-उच्च, श्रेष्ठ, विशद और दयावान । उदात्त अलंकार में संपत्ति का वर्णन इतना श्रेष्ठ हो कि वह इह लोक में संभाव्य न हो, अर्थात् लोकोत्तर हो और महान् पुरुषों का उच्च चरित्र वर्णनीय वस्तु का अंगमात्र होकर उसकी लोकातिशयता प्रकट करे, इत्यादि...। अस्तु, इस प्रकार 'उदात्त' दो प्रकार का - साहित्य-मर्मजों ने कहा है। प्रथम उदात्त- 'अतिशय समृद्धि वा संपत्ति के वर्णन में और दूसरा 'महान् आत्माओं के चरित्रों को अंगीभूत बनाकर कहने में। दासजी ने दोनों के ही उदाहरण क्रमशः दिये हैं। पा०-१. (का० ) (०) सुकवि कहैं उद्दात । २. (0) को...।