पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/३२७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
२९२
काव्य-निर्णय

२६२ काव्य-निर्णय अथ अधिक अलंकार घरनन जथा- अधिकाई' आघेइ की, जहँ अधार ते होइ। औ अधार आधेह ते, 'अधिक' अधिक ए जोइ ॥ वि०-"जहाँ बड़े प्राधेय और आधार की अपेक्षा क्रमशः अल्प अाधार और अधिक प्राधेय का वर्णन किया जाय, वहाँ 'अधिक' अलंकार कहा जाता है । यह दो प्रकार का-“श्राधेय की अपेक्षा श्राधार, तथा अाधार की अपेक्षा श्राधेय का अधिक वर्णन-रूप" होता है । अर्थात् , जहाँ कवि-प्रतिभा की कल्पना से-चमत्कार से, न्यूनाधिकता का वर्णन हो वहाँ यह अलंकार होगा, अन्यत्र- वस्तुतः न्यूनाधिकता के वर्णन में नहीं। दंडी ने अपने काव्यादर्श में इस अलंकार को अतिशयोक्ति के "अंडर. ग्राउड" माना है, तदनुसार दासजी ने भो।" प्रथम अधिक उदाहरन जथा- सोभा नंद कुमार को, पाराबार अगाध । 'दास' ओछरे हगन-मधि,' क्यों भरिऐ भरि साध ॥ वि०-'दासजी से पूर्व गो० तुलसीदासजी भी इसी अलंकार की श्रोट में एक बड़े मार्के की बात कह गये हैं, जैसे- "ब्यापक ब्रह्म निरंजन-हुँ, निरगुन विगत बिनोद । सो अज प्रेम प्रो भक्ति-बस, कौसिल्या की गोद ॥" द्वितीय अधिक उदाहरन अाधेइ ते अाधार अधिक- बिस्वामित्र' मुँनीस को, मैंहमाँ अपरंपार । करतल-गत आँमलक-सम, जा'कों सब संसार । पुनः उदाहरन जथा- सातों समुद्र घिरी बसुधा, औ सातों गिरीस धरे सब ओरें । सातों-हो दीप सबै दरम्यान में, होंइगे खंड किते तिहि ठोरें.॥ 'दास' चतुरदस-लोक प्रकासित, हैं ब्रह्मंड इकीस ही जोरें। एते-हि में भजि जइहै कहाँ खज, श्री रघुनाथ सों बैर-बिथोरें॥ पा०-१. (३० ) अधिकारी...। २. ( का० ) (३०) (प्र०) दोश् । ३. (३०) बोहरे...। ४. ( का० ) (३०) (प्र०) मधि । ५. (३०) बेस्यामित्र.... ६. ( का०) (३०) जिन...। (प्र०) जिनके...। ७.( का० ) (३०) (प्र०) यह...| 4. ( का०). (३०)(प्र०) सात...। ६.( का०) (३०) (प्र०) दीप...। १०. ( का० ) (३०), धरे...। ११.( का० ) (३०) चतुरवस.... १२. (का०) ही...|