पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/३३५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

३०० काव्य-निर्णय ब्याजस्तुति-लच्छन जथा- इँन में स्तुति-निंदा मिले, 'ब्याजस्तुति' पैहचाँन । सब में ए' जोजित किएँ, होत अनेक बिधान ।। वि०-'दासजी ने ऊपर लिखे दोहों में 'अप्रस्तुत-प्रशंमा' के विमेद बतलाते हुए प्रथम 'प्रस्तुत-अप्रस्तुत', फिर 'अप्रस्तत-प्रशंसा', तदनंतर 'प्रस्तुतांकुर' "और उस से विकसित 'समासोक्ति' तथा 'व्याजस्तति' की ( मोटे रूप से ) उत्पत्ति कही है, जो उनकी नयी सूझ-बूझ को-अलंकारों के वर्गीकरण की सुंदर परिपाटी को, बतलाती है।' प्राचार्य मम्मट ने अापने काव्य-प्रकाश में प्रस्तुतांकर' अलंकार का उल्लेख नहीं किया है, समासोक्ति और व्याजोक्ति का वर्णन किया है । समासोक्ति और व्याजस्तुति प्राचीन अलंकाराचार्य संमत हैं। अस्तु, भामह और उद्भटा- चार्यों ने समासोक्ति को परिभाषा-'समान विशेषण के सामर्थ्य से प्रकृत-परक- वाक्यों के द्वारा अपकृत अर्थ के अभिधान' को माना है । रुरक उक्त लक्षण से विपरीत हैं, वे- "विशेषाणां साम्पाद प्रस्तुतस्य गम्यत्वे समासोक्तिः।" मानते हैं। मम्मट ने रुय्यक-लक्षण को ही अपनाया है-उसी से प्रभावित हुए हैं। व्याजस्तुति के प्रति भी प्राचार्य मम्मट के अलग विचार हैं, वहाँ भी वे भामह-उद्भटादि प्राचीन अलंकाराचार्यों का अनुगमन न कर एक नया मार्ग ही प्रसस्त करते हैं।' अथ अप्रस्तुत-प्रसंसा को प्रथम भेद कारज-मिस कारन को उदाहरन जथा- न्हात सेंमें 'दास' मेरे पाँइन परयौ हो सिंध- तट नर-रूप कोऊ निपट बेकरार में। मैं कयौ को है तु, कयौ बूमत कृपा कर तौ- सहाइ कछु करौ ऐसे संकट अपार में । पा०-१. ( का० ) (३०)(प्र०) यह । २. ( का० ) (३०) (प्र. ) न्हांन"। ३. ( का० ) (३०) (प्र. ) है...। ४. (र० कु० ) · सिधु, नटबर है के निपट बिकार में । ५. ( का० ) (३०) (प्र०) ( स० स०) (भा० भू०) है"। ६.(का०) (प्र.) (मा० भू०) कही तू कोहै, (३०) (म० स० (२० कु०) कसौ त को है। ७.( का०)(३०) जूझती" | R. ( का० )(३०)(प्र०) (सं० पु० प्र०)(२० कु०) (स० स०) (भा० भू०) के...।