पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/३४०

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काव्य-निर्णय ०५ अथ सब्द-सक्ति ते अप्रस्तुत-प्रसंसा को उदाहरन जथा- गुन-करनी गज को धुनी, गरें। घरें सुम साज। आहे' प्रही तिहि राज सों, सजे आपनों काज ।। पुनः उदाहरन जथा- 'दास जू जाकौ सुभाब यहै, निज अंक में डारि कितै नहिं मारे। को हरुवौ अरु को गरूवौ, को भलौ, को बुरो, कबहूँ न बिचार ॥ ओर को चोट सहाइवे काज, प्रहार सह अपने उर भार। आइ परयौ खल खाल के बीच, करै अब को तुब छोह-छुहारे। अथ प्रस्तुतांकुर (रूप) कारज-कारन दोऊ अप्रस्तुत को उदाहरन जथा- 'दास' उसासँन होत हैं, सेत कमल-बैन नील । राधे-तैन-आँचन अली, सूखत असुवा-झील' ॥ अस्य तिलक इहाँ विरह को तेज औ भंसुवान को ( प्राधिक्य ) दोऊ वरनत है, दोऊ अप्रस्तुत हैं। वि०--"दासजी के इस दोहे में नायिका की विरह-जन्य उसासों से श्वेत- कमलों का नीला पड़ जाना - मुरझा जाना और विरहाग्नि-तचित तन से आँसुवों को “झील" (बहुलता) का सूख बाना कार्य-कारण श्रादि अप्रस्तुत होते हुए भी, अर्थात् 'अन्योक्ति' के अंग होते हुए भी, प्रस्तुत रूप से कहे गये है, पर नायक के प्रति दूती-द्वारा कथित नायिका के विरह-ताप का वर्णन प्रत्यक्ष उपालंभ है, जो प्राकर्णिक होते हुए भी प्रस्तुत है।" पुनः उदाहस्न जथा- पारज भाइबौ पाली कहयौ, भजि साँमुहें तें गई मोट में प्यारी। एक ही एड़ी महाबरी' ही, स्लॅम ते दुहुँ फैली खरी भरनारी॥ 'दासन जॉन धों कोंन है दीबी, चितै दुहुँ पाइन नाइन' हारी। भाप कहयौ भरी दाहिने दै, मोहिँ जॉन पर पग बॉम है भारी॥ पा०-१. (वे.) (प्र०) गारौ धरै सुसाज । २. (का०) (३०) (प्र०) महो...। ३.(का०) (प्र०) सबै...। (३०)(सं० पु० प्र०) साधे..... (सं० पु० प्र०) (का०) (३०) याके...! ५. (प्र०) कितेकन्ह मारे । ६. (३०) हील...! ७.(३०) महावर.... (प्र०) महार दै..... म. (रा. पु. नी० सी०) फली...18.(का०) (०) नाइ विहारी...। १०.(का०) मापी... (२०) भाली। २०