पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/३४४

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काव्य-निर्णय ३.०६ अंत में, 'कमर' का नाम कटि क्यों पड़ा इस पर 'रसनिधि' को एक सूकि, यथा-- "नेही-मन कटि प्रात लखि, पीतम-कटि-अभिराम । कर-कर ऐसौ काट ये, पायौ है 'कटि' नाम ॥" मन ( भारी) अर्थ से विपरीति 'रसनिधि' की यह उक्ति भी सुंदर है, नथा-- "उड़त फिरत जो तूल-सम, जहाँ-तहां बेकॉम । ऐसे हुरुए को धरयो, कहा जॉन 'मन' नाम ॥" अथ समासोक्ति लच्छन जथा- जहँ' प्रस्तुत में पाइऐ, अप्रस्तुत को ग्याँन । कहुँ बाचक,कहुँ स्लेस ते, 'सँमासोक्ति पहचान ॥ वि.-"जहाँ प्रस्तुत ( जिसका सष्ट वर्णन किया जाय ) के कथन में अप्र- -स्तुत ( समता से जिसपर उस व्यवहार का आरोप किया जाय) का ज्ञान पाया जाय-उसका वर्णन किया जाय, अथवा अप्रस्तुत का वर्णन भी निकलता हो, वहाँ दास जी के अनुसार “समासोक्ति" अलंकार होता है और उसकी पहचान कहीं वाचक से और कहीं श्लेष से होती है। चंद्रालोक (संस्कृत) कर्ता का कहना है-"जहां किसी प्रस्तुत विषय को उठाकर उसी वाक्य में लिंग-क्रिया श्रादि के रूप में गर्मित किसी अन्य अप्रस्तुत-विषय की झलक दिखलायो बाय" अथवा संक्षिप्त रूप में कहा जाय-"जहाँ प्रस्तुत के वर्णन द्वारा समान विशे- षणों से अप्रस्तुत का भी बोध कराया जाय, तो वहाँ 'समासोक्ति' अलंकार होता है। समासोक्ति-समास, अर्थात् 'थोड़े में बहु कथन' को कहते हैं। अतएव 'समासोक्ति' में संक्षेप से कही गयी उक्ति होती है, अर्थात् एक प्रस्तुत-अर्थ के वर्णन द्वारा दो (प्रस्तुत-अप्रस्तुत) अर्थों का, प्रस्तत के वर्णन में समान (प्रस्तुता- प्रस्तुत दोनों के साथ संबंध रखने वाले) विशेषणों की सामर्थ्य से अप्रस्तुत का बोध कराया जाता है, जैसा दास जी ने पूर्व में-'समासोक्ति प्रस्तते ते, अप्रस्तुत अबरेखि' रूप से कहा है । समासोक्ति में दासजी-मतानुसार विशेष-वाचक शब्द श्लिष्ट नहीं होता, केवल विशेषण समान रहते हैं। ये समान विशेषण ही कहीं श्लेष-युक्त और कहीं श्लेष-रहित (साधारण) होते हैं। पा०-१. (का०) जेहि (जिहिं)।