पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/३४७

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१११ काव्य-निर्वाच पुनः उदाहरन स्लेस ते जथा- बहु ग्यॉन-कौँन लै थाकी' हों में, कुल-कॉन हूँ को बहु नेम लियौ। इन तीखी चितोंन के तीन ते, अँनि 'दास' तुनीर भयौई हियो । अपने-अपने घर जाहु सबै, अब लों सखि सीखि दियौ-सो-दियो। अब तो हरि-भौह-कमानॅन' हेत, हों प्रॉनन को कुरबान किया। अस्य तिलक हो हरि की भोंह-कमानन पे ऑन को न्योछावर कियो ये प्रस्तुत है, कुरबान कमान की म्यानहूँ जॉनी जात है सो स्लेस है। वि०-"दासजी की यह सरस-सूक्ति परकीया नायिका (पर-पुरुष से प्रेम करनेवाली) की उक्ति है । ब्रज-साहित्य में 'परकीयत्व' की, उसके प्रेम की बड़ी महिमा है। यहां उस झमेले में न पड़ परकीया नायिका-द्वारा कथित दो-एक उक्तियाँ देते हैं । प्रथम 'सूर' की, यथा- 'सुंदर बदन सदन सोभा को, निरखि नैन-मॅन थाक्यौ। हों ठाड़ी, बीथि नि-ह, निकस्यौ, उझकि झरोखन झाँक्यो । मोहन इक चतुराई कीन्हीं, गेंद-उछारि गगन-मिस वाक्यौ । बारोंनी लाज बैरिन भई मों कों, हो गॅमार मुख-डॉक्यो॥ चितवन में कछु कर गयौ टोना, अब न रहत मन राख्यो। "सूरदास-प्रभु सरबस लै के, हसत-हसत रथ-हाँक्यौ ॥" "हम एक कुराह पनी-तो-चली, हटको इन्हें ए नाँ कुराह चलें। इहि तौ बलि मापनों सोचिती हैं, न पालिऐ सोई जो पाने-पलें। 'कवि ठाकुर' प्रति करी है गुपालसों,(सुतौ)टेरे कहों सुनों ऊँचे गर्ने । हमें नींकी नगी सोकरी हमनें, तुम्हें नींकी लगौ न लगौ तौ भलें । एक और- "कहियो कों पिया, सुनिबे को हँसी, को दया सुनि उर-मानत है। बह पीर पटै तजि धीर सखी, दुख को नहि का बखाँनत है। 'कवियोषा' को में सबाद कहा, को हमारी कही पुनि मानत है। हमें पूरी नगी, के अधुरो बगी, जीव हमारी-ई जानता है।" , -१.(क) बाकि...। २. (का) (३०) (प्र०) यह.... ३. (रा०' पु० जी० मी०) मले...1४. (रा० पु० नी० सी०) के...।