पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/३५१

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काम्य-नियंव वि.-"निंदा के बहाने निंदा, अर्थात् "अन्य की निशा" का 'भानुषी' ने भी सुंदर उदाहरण संकलित किया है, यथा- "कि के भाई सबै बैन कों, हिय कि मेंन की भागि जगावति । तू तो रसातल बेधि गई, उर-बेधति, नेक दया महि म्पावति ॥ भाप गई भरू औरन खोवति, सौति के काम भनी-विधि भावति । ज्यों बड़े बंस से लूटी है स्यों बड़े बंसते औरॅन-हकों, छुरावति ॥" ब्याजस्तुति और अप्रस्तुत-प्रसंसा को संमिलित उदाहरन जथा- बात इति तोसों भई, निपट भली करतार । मिथ्याबादी काग कों, दीनों उचित प्रहार ।। जाहि सराहत सुभट तुम, दसमुख बार अनेक। सुतौ हमारे कटक में, भोछो धाँमन एक ।। पुनः उदाहरन जया- काहू धनबंत को न कबहूँ निहारयो मुख, काहू के न आगें दौरिबे को नेम लीयो तें। काहू को न रिन करें, काहू के दिए ही बिन, हरौ तिन भसँन-बसन छोरि दीयौ ते॥ 'दास' निज सेबक-सखा सों अति दूरि रहि, लूटै सुख-भूरि को हरख-पूरि होयौ तें। सोबत सुरुचि जागि, जोबत सुरुचि धन्य, बांधब कुरंग कहि, कहा तप कीयौ तें॥ पुनः उदाहरन जथा- ते-हूँ सबै उपमान ते भिन्न, बिचारत-ही बहु पौस मरौ पचि । 'दास जू' देखें-सुने जे कहूँ, अति चिंतन के जुर जात खरचौतचि ॥ सोहू बिना अपनों अनुरूप को, नायक-भेंट विधान रही खचि । ए' करतार, कहा फल पायौ'४ तू, ऐसी अपरब रूपबती रचि॥ पा०-१. (का० ) (३०) (प्र०) लियो...। २. ( का०) (३०) (प्र.) दियो.... ३. (३०) अवि...। ४. (का० ) (३०) (प्र०) हियो...। ५. ( का०) (प्र.) (३०) जोवतो.... ६. (३०) ध । ७.(का०) (३०)(प्र. ) व...। 4. (का०) (३०) (प्र.) कियो...। ६. (३०) मरी...। १०.(का०) () जु बहू (बहो)। ११. ( का० ) (३०)(प्र.) खरी... १२. (का०) (प्र.) मेंटे...। १३. (का० ) रे...। १४. (३०)पाए...