पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/३५३

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काव्य-निर्णय सा० द० १,६५), कोई ऊपर लिखे तीन और कोई इन तीनों के प्रकारांतर से (जैसे-उताक्षेप के चार भेद, जहाँ कही हुई इष्ट बात के स्वरूप-ही का निषेध- सा किया जाय, २-जहां कही हुई बात का निषेध-सा किया जाय, ३-जहाँ वदग्माण या कही जानेवाली पूर्ण इष्ट बात का निषेध-सा किया जाय और जहाँ कुछ अंश कहकर बाकी अंश का निषेध-सा किया जाय-अादि ) सात भेद मानते हैं, किंतु मुख्य ऊपर लिखे अथवा दासजी-द्वारा कथित तीन-भेद ही प्रसिद्ध हैं। संस्कृत-अलंकार ग्रंथों में प्रथम श्राक्षेप के-'वदमाण-निषेधाभास, उक्त- विषय में स्वरूप का निषेधाभास और उक्त-विषय में कही हुई बात का निषेधाभास' आदि तीन भेद माने हैं। ____ध्वन्यालोक (संस्कृत ) में भामह के 'श्राक्षेप-अलकार के प्रथम भेद 'वयमाण-विषयक' "अहंवा यदि नेतेय...." उदाहरण को लेकर बहुत कुछ विवेचन किया गया है । "अहंत्वा यदि नेक्षेय.' अर्थात् 'मैं तुमको ( यदि) तनिक देर भी न देखू तो उत्कंठातिरेक से.. बस इतना ही रहने दो, आगे अप्रिय बात कहने से क्या लाभ" की व्याख्या करते हुए कहा गया है कि 'इस उदाहरण में जो वक्ष्यमाण अर्थ है-'मर जाऊँगी', उसका पूर्व ही निषेध- 'बस इतना ही रहने दो, आगे अप्रिय बात कहने से क्या' रूप में कर दिया गया है। यहाँ 'मर जाऊँगो' व्यंग्य है-ध्वनि है, अतएव यह व्यंग्य (ध्वनि) होने से ध्वनि का अंतर्भाव इस अलंकार में किया जा सकता है, किंतु ध्वनि वहाँ होती है जहाँ व्यंग्य प्रधान हो। इस उदाहरण में व्यंग्य अवश्य है, पर वह प्रधान नहीं है। यहाँ तो व्यंग्य से वाच्यार्थ ही अलकृत हो रहा है। इसलिये इस अल कार में ध्वनि का अंतर्भाव नहीं हो सकता-इत्यादि..." वामन (संस्कृत काव्याल कार सूत्र-वृत्ती) ने भी 'श्राक्षेप' का लक्षण ( विषय ) 'उपमानाक्षेपश्चाक्षेपः ( सू० ४, ३,२७ ) माना है, अर्थात् जहाँ उपमान का आक्षेप निष्फलत्त्वाभिधान से किया जाय वहाँ यह अलंकार होता है । किंतु नवीन प्राचार्य ऐसे लक्षण में स्थिति में, आक्षेप नहीं मानते, वे वहाँ 'प्रतोप' अलंकार मानते हुए आक्षेप का लक्षण ऊपर लिखे भामह के मतानुसार ही करते हैं। वामन के इस--'उपमानाक्षेप०' सूत्र की व्याख्या करते हुए 'लोचन'कार ने 'उपमानस्य चंद्रादेराक्षेपः, अस्मिन् सति किं त्वयाकृत्यमिति". कहते हुए बो उदाहरण दिया है, वह साहित्य-दर्पण में कथित प्रतीपाल कार से मिलता-जुलता है। लोचनकार ने वामन के लक्षणानुसार जो उदाहरण-- "तस्यास्तन्मुखमस्ति सौम्यसुभगं किं पार्वणेनेंदुना'... दिया है, वहाँ पूर्णचंद्र के साथ मुख की