पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/३५७

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३२२ काव्य-निर्णय वि०-दासजी कृत · यह ( दोनों उदाहरण ) तृतीय श्राक्षेप-"निज कथन को दूखन मिस भूषन-सम वरनन' का है । अलंकार के अन्य प्रयों में यह प्रथम श्राक्षेप (जिसमें अपने कथितार्थ का उत्कर्ष-सूचक निषेध किया जाय ) का है । ये दोनों उदाहरण नायिका के सौंदर्य और प्रेम के उत्कर्ष को सूचित करते हैं । मतिरामजी ने भी उक्त अलंकार का सुंदर उदाहरण प्रस्तुत किया है, यथा-- "दै मूदु-पॉइन जाबक को रंग, नाह को चित्त रंग-रँग जाते। प्रजन दै करौ नेनन में सुखमाँ बदि स्याँम - सरोज • प्रभात ॥ सोने के भूषन भंग रचौ, “मतिराम' सबै बस कीवे की घात। यों-हीं चलौ न, सिंगार सुभाव-हि, मैं सखि, भूलि कही सब बातें ॥" अथ परजायोक्ति अलंकार बरनन जथा- कहै' लच्छनॉ-रीति लै, कछु रचनाँ सों बैन । मिस-करि कारज साधियो, 'परजाजोक्ति' सु ऐंन ।। वि०- "जहाँ पयार्य-शब्दार्थानुरूप 'प्रकार' और 'व्याज' ( बहाने ; इन दोनों (अर्थों) के आधार पर वर्णन किया जाय, वहाँ उक्त अलंकार कहा जाता है। दासजी ने यहाँ-पर्याय-अलंकार का लक्षण न कह उसके दोनों भेदों- "जहाँ लक्षणा की रीति से-व्यंग्य से, अपना इच्छित अर्थ कहना" और "जहाँ किसी बहाने से मन-वांछित-कार्यसाधा जा", का लक्षण कहा है। पर्यायोक्ति का शब्दार्थ है, पर्याय ( अन्य प्रकार ) से कहना-अपने अभीष्ट श्रथ को सीधी भांति न कह घुमा-फिराकर कहना । यह घुमा-फिराकर कहना 'प्रकार' (जिसमें विवनितार्थ का वर्णन सीधी रीति से न कर चमत्कारपूर्ण प्रकारांतर से किया जाय ) से तथा "ज" ( जहाँ किसी रमणीय व्याज-बहाने के साथ -द्वारा अभीष्ट-साधन किया जाय ) से बनता है । पर्यायोक्ति का सर्वप्रथम लक्षण भामह का इस प्रकार है "पर्यायोक्त पदन्येव प्रकारेणाभिधीयते ।" जिसे उद्भट ने परिष्कृत किना और दंडो ने भी इनका अनुशरण किया । काव्य-प्रकाशकार मम्मट ने उक्त अलकार के लक्षण में अनुशरण तो भामह, उद्भट और दंडी का ही किया है, पर अपने वाक-वैचित्र्य के साथ। भामह और दंडी कृत लक्षणों में जो 'अन्य प्रकार' तथा 'प्रकारांतर' का रूप अस्पष्ट था उसे अापने-'श्रवगमन-व्यापार', वा व्यंजन व्यापार से कहकर अधिक पा०-१. (का० ) (३०)(प्र०) कहिय...!