पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/३६०

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अथ तेरहवाँ उल्लास: विरुद्धालंकार बरनन जथा- बिबिध, बिरुद्ध-बिभावना", "ब्याघातै” उरु आँन । "बिसेसोक्ति""ौ "असंगति, "विषम' सहित छ जॉन ।। वि०-' इस उल्लास में दासजी ने संस्कृताचार्यो-द्वारा कहे गये “विगेध- मूलक"-"विरुद्ध (विरोधाभास), विभावना, व्याघात, विशेषोक्ति, असंगति, "और विषम" श्रादि छह अलकारों का कथन किया है। संस्कृत साहित्य में विरोध-मूलक तेरह (१३) अलंकार माने गये हैं, जिनके नाम इस प्रकार हैं- "विरोधाभास, विभावना, विशेगोक्ति, विद्यम, सम, असंगति, असंभव, विचित्र, व्याघात, अधिक, अल्प, विशेष और अन्योन्म । “दासजो के उक्त छह विरुद्धा- लंकार (विरोध-मूलक) मानने का क्या अाधार है, कुछ कहा नहीं जा सकता । वह स्वतंत्रता-संयुक्त है । "रुय्यक" और उनके शिष्य "मंखक" ने भी "विरोध मूलक बारह अलंकार-"विरोध, विभावना, विशेषोक्ति, सम, विचित्र, अधिक, अन्योन्य, विशेष, व्याघात, अतिशयोक्ति, कार्य-कारण पौर्वापर्व असंगति और विषम माने हैं । इनमें "अल्प' और 'असंभा" का वायकाट कर 'अतिशयोक्ति' को स्यान दिया गया है। ये सभी अलंकार विरोध-मूलक हैं । सम को विरोध- मूलक न होने पर भी विषम का विरोधी होने के कारण इस वर्गीकरण में स्थान मिला है, इत्यादि. ..। ___ काव्य-प्रकाश संस्कृत के मान्य मथ में भी इनका कोई प्रथक् उल्लास के साथ कथन वा वर्णन नहीं है । वहां प्रथम विभावना पुनः विशेषोक्ति और इसके बाद विरोधाभास, असंगति, विषम और व्याघात का बिना कोई क्रम के आगे-पीछे उल्लेख है । साहित्य-दर्पण में भी प्रायः यही परिपाटी है । अस्तु, विरोधालंकार वहाँ है, जहाँ सुने जाने वाले शब्द से विरोध-सा प्रतीति तो हो, परंतु शब्दों का अन्य-परक तात्पर्य होने से उसका परिहार भी हो जाय... । अर्थात् विरोध के प्रामास से विकृत होकर भी चमत्कार-जन्य बना रहे, क्योंकि यह अलंकार तभी अलंकार है, जब कि वाचार्य में विरोध प्रतिभाषित होता रहे। यदि उसके ___पा०-१.( का० ) (प्र०) बिसेसीक्तिरु असंगत्यो...। (३०) बिसेसोक्ति अरु संगतो, विषम समोचिबा....