पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/३७२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

काव्य-निर्णय पुनः उदाहरन जथा- फेरि कादिबी बारि ते, बारिजात दनुजारि । चलि देखो, जहँ हग कढ़त बारिजात ते वारि ।। . वि०-"कारण के द्वारा कार्य को उत्पत्ति को छठी विभावना का विषय माना गया है। इस विभावना का "रघुनाथ" कवि-कृत वर्णन-उदाहरण भी सुंदर है, यथा- "जनिति-ही न बसंत को भागम, बैठी ही ध्यान-धरें निज पी को। एते में कॉनन-ओर सों भाइके, कॉनन में परयौ बोल पिकी कौ ॥ हे 'रघुनाथ', कहा कहिऐ, कहि भायौ 'हा', भायौ गरौ भरि ती को। लोचन-बारिज सों असुवाँन को, भथाह बह्यो परवाह नदी को॥" श्राचार्यों का मत है कि विभावना' और पूर्व कथित 'विरुद्धालंकार' मिलते. जुलते अलंकार हैं, फिर भी विरुद्ध में विरोधी पदार्थों का संसर्ग कहा जाता है और काय-कारण वा कारण-काय के संबंध का नियम भी नहीं होता । विभावना में ऐसा नहीं है, यहाँ कारण-कार्य नियमित रहते हैं।" दूलह कवि ने अपने "कविकुल-कंठाभरण" में विभावना के छहों भेदों के उदाहरण दो छंदों में बड़ी सुंदर रीति से समझाये हैं, जैसे-- "विन-हेतु फारज की उपज"" विभावनों हैं, अंजन - बिनो - ही नेन ऐंन कजरारे हैं। "कारन अपुरे पूरे काज" दूसरी है,- मेंकु पग मग • धारे जगमग धारे है। "होह प्रतिबंधक भएँ हूँ पर काज" देखो, ___ तीसरी बिभावनों के चरित निहारे है। राधिका पै चौकी राखी, चौकिन 4 रखवारे, सङ केलि · करत निहारे कॉम्ह कार है। चौथी है-"प्रकारेन ते कारज-जनम" रूप- लता पै सोभावगन श्रीफल सुगर भे। पाँचई-"विरुद्ध काज प्रापति" प्रवीन मंजु- बदन ते बेन कति सौति-उर पार भे॥ पा०-१. (का० )(३०) कढ़त दूग...। (प्र०) देखी-दृग जेहि कढ़त... . ' २२