पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/३८०

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काक-निगाव वि०-"दासजी ने ऊपर लिखे दो दोहों-द्वारा "असंगति" अलंकार को तीन प्रकार का माना है। ये तीन प्रकार (भेद) है - "काय-कारण के भिन्न स्थल, "एक स्थल की क्रिया दूसरे स्थल' और श्रारंभ तो किसी कार्य का किया जाय, पर किया जाय कोई दूसरा-ही । इस प्रकार ये प्रथम, द्वितीय और तृतीय भेद कहे जाते हैं । संस्कृत-अलंकार-प्रथों में भी ये ही प्रथम ( विरोध के अाभास-सहित कार्य- कारण के एक ही काल में पृथक्-पृथक् श्राश्रय-स्थान का वर्णन), द्वितीय (अन्यत्र कर्तव्य-कार्य को अन्यत्र किया जाना) और तृतीय (जिस कार्य के करने को प्रवृत्त हो उसके विरुद्ध कार्य किया जाना) असंगति नाम दिये हैं। असंगति का अर्थ है संगति का न होना, स्वाभाविक संगति का त्याग । इस अलंकार में कारण-कार्य की, वा केवल कार्य की स्वाभाविक संगति का त्याग कहा जाता है। यह साधारण नियम है कि जहां कारण होता है वहीं कार्य भी, किंतु कवि, कौशल-विशेष-द्वारा अपनी रचना में चमत्कार उत्पन्न करने के लिए उस कार्य का अन्यत्र (दूसरे स्थान पर) होना कह उसे असंगति अलंकार से अलंकृत करता है । यहां यह आवश्यक नहीं, कि वैयधिकरण्य कार्य-कारण में ही हो, अपितु जिन्हें एक स्थान पर स्वभावतः होना चाहिये वहां भी वैवधिकरण्य होने से यह अलंकार कहा जाता है और जहाँ स्वभावतः कारण एक स्थान पर है और उसका कार्य अन्यत्र है तो ऐसी अवस्था में वैयधिकरण्य नहीं तथा असंगति अलं- कार भी नहीं, क्योंकि असंगति में एकाधिकरण्यवालों का जिनका एक स्थान पर रहना प्रसिद्ध हो, वैयधिकरण्य होता है तथा “विरोध" में इसके विपरीत वैय- धिकरण्य होता है। काव्य-प्रकाश (संस्कृत) में लिखा गया है-"असंगति अलंकार, विरोधाभास का वाधक होने से विरोधाभास नहीं है, क्योंकि यहाँ (असंगति में) जो विरोध प्रकट होता है वह दोनों धर्मियों के विभिन्न श्राधार के द्वारा होता है और विरोधाभास में उन दोनों धर्मियों का एक-ही आधार पर रहना श्रावश्यक है। (दे० काव्य प्रकाश द० उ० पृ० ३३२)।" । अथ 'कारज-कारन को विभिन्न थल परनन रूप प्रथम प्रसंगति को उदाहरन जथा- 'दास' दुजेस घरान' में, पानिप बदायौ भपार । जहाँ-वहाँ पूढे मॅमिव, बेरिन के परिवार ।। पा०-१. (का०) (०) (१०) द्विजेस... १. (ne.का) पटान....