पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/३८२

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काव्य-निर्णय मनः कांत गछति-" (द० पू० अ० ३१, ११ )" के आधार पर एक सुंदर खुक्ति सजते हुए प्रथम असंगति का अच्छा उदाहरण उपस्थित किया है, जैसे- "कत अवनी में जाइ भटत अठौन-डॉन, परत न जॉन कोंन कौतुक विचारे हैं। कहै 'रतनाकर' कमल-दल हू सों मंजु, मृदुल अनूपम चरन रतनारे हैं॥ धारें उर-मंतर निरतर लड़ावें हम, गावें [न विविध बिनोद मोद-भारे हैं । लागत जो कंटक तिहारे पाँइ प्यारे हाइ, भाइ पैहले-हीं हिय बेधत हमारे हैं।" इसी अलंकार से अलंकृत एक 'फासी' का शेर भी बड़ा सुंदर है, जिसे चिरस्मरणीय स्वर्गीय पं० पद्मसिंहजी, जो संस्कृत, हिंदी (ब्रजभाषा) और उर्दू के अति ज्ञाता थे, कहा करते थे, यथा - ___"कहाँ है दुख्तरे रिज हम महरसव वादावारों में । तेरे डर से वो काफिर जा छिपी परहेज़गारों में ॥ अस्तु, परम साहित्य-मर्मज्ञ पं० पद्मसिंहजी शर्मा कथित इस शेर के साथ समय के पृष्ठों पर लिखी एक भूली हुई कहानी है, जिसका इस लेखक से संबंध था और जिसे स्थानाभाव के कारण लिखना अनुचित है। पुनः उदाहरन जथा--- मो मति पैरॅन लागी अली, हरि-प्रेम-पयोध की बात न जॉनी । 'दास' थकथौ मँन-संगति'है, गई बूडि सबै कुल-काँनि'-कहाँनी ।। फूल उठ्यौ हियरा' भरि पाँनिप, लाज-भरी बोहत उतराँनी। अंग दहें उपचारि को आगि, सो कैसी नई भई रीति सयाँनी ।। अथ दुतीय असंगति-"और थल की क्रिया और थल" को उदाहरन जथा- में देख्यौ बँन-न्हात, रॉमचंद तो भरिन.तिय । कटि-तट पैहरें पात, हग-कंकन, कर में तिलक । पा०-१.(सं० पु० प्र०) (का०) (३०)-सक वही...| २. ( का० ) (३०) (प्र.) रीति...। ३. (का० ) (३०) (प्र०) हियरौ.... ४. (सं० पु० प्र०)(का०) (३०) बहुरथो-बहुरौ...। (प्र०) बहुतै . । ५. (प्र०) आँचि...। ६. (रा. पु. का.) कैसी भई-नई...1७.( का० ) (३०) तुम... (३०) तुन...। . ( स० पु० प्र०) तो भरि-तियन.... ..(सं० पु० प्र०) पेहरे कटि-सट-पात, ककन दृग...।