पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/३८३

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काव्य-निर्णय पुनः उदाहरन अथा- लाहु कहा खए' बेंदी दिऐं, औ कहा है तरोनॉ' बाँह'-गड़ाऐं। कंकन-पीठ, हिऐं ससि-रेख, की बात बँने बलि मोहि बताऐं ।। 'दास' कहा गुन ओठ में अंजन, भाल में जाबक-लोक -लगाऐं। कॉन्ह, सुभाइ-हो बूझति' हों में, कहा फल ने न पान-खबाएँ।।. वि०--"दासजी का यह छंद उनके "शृगार-निर्णय" में "मुग्ध-हाव" के तथा "रस-कुसुमाकर" में "मुग्धा-खंडिता" के उदाहरण में भी संकलित किया हुश्रा मिलता है । मुग्ध-हाव, यथा- "जाँनि-बूझि के बौरई, जहाँ धरति है बाम । 'मुग्ध-हाब' तासों कहैं, बिम-ही के धाम ॥ अस्तु, ऐसे 'असंगति' के उदाहरण “खंडिता" ( प्रियतम, नायक को रात्रि में अन्यत्र रमण कर प्रातः रति-चिन्हों से मंडित देखकर दुःखित होने वाली) नायिका के उदाहरणों में बहुधा मिलते हैं । जैसे- "प्रीति राबरे सों करी परम सुजॉन जॉन, अब तो अजॉन बनि मिलत सबेरे पै। 'लच्छीराम' ताहू पै सुरंग प्रोदनी ले सीस, ___पीत - पट देत गुजरैटिन के खेरे ॥ सराबोर छलके प्रसेद - कन लाल - भाल, मदन - मसाल वारों बर्दैन - उजेरे है। मापुने कलंक सों कलंकिनी बनीं हों, लूटि- और हू को धरत फलंक सिर मेरे पै ॥ अथवा - "खेल न खेलिऐ ऐसे भटू, सुपरोसिन को कहूँ लखि ले है। माँनहुँ नौ बरजी हमरी, भव काहे कों को सिखान दै है। नंद कुमार महा सुकुमार, विचार के फेरि हिऐं पलिते है। धानिऐ माँ इन फूलॅन की, पंखुरी कहूँ अंगन में गदि जै है।" पा०-१.(का०) ( नि० ) कहो...! (प्र०) (० ल० सी० ) कर...! (र० कु०) खरी...। २. का०)(३०) (प्र.) ( नि.) (२० कु. ) तरोंना के...। १ (०नि०) बेहु... ४.( रा० पु. नी० सी०) पीक...। ५.(०नि०) पूछति...। ___ • नि० (मि० दा० ) १०६३, २७७ । २० कु. (40) १० ११०, ३४३ । Q० ल० सौ०(ब.प.) पृ०२६७।