पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/३८६

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काव्य-निर्णय ३५१ साँवरौ-सौ टोटा इक ठादी जमुना के तीर, मों-तन निहारी नीर-भरि अँखियाँन दै॥ वा दिन ते मेरी-री दसा कों कछु बूझ मति, चाँहे जो जियायौ तौ वही रूप-दान दै। हा-हा करि पाँइ परौ, रह्यौ नहिं जाइ घर, पनघट जाँन दैरी, पनघट जाँन दे॥" अथवा- "कुज गई हुती ले सखिपान कों, प्रायौ तहाँ कदि नंद को बारौ । मोर पखाँन को मौर धरें, गरें गुज-हरा छवि पुंज बगारौ ॥ हेरि 'मजॉन सी है रही बीर, अधीर है जा-ऊन मोहि निहारौ । बै गयो नेह को बीज हिऐं, मन लै गयौ मोहन मोहिनी बारौ ॥" __ अथ “विषमाँलंकार" बरनन जथा- अनमिल बातँन कौ जहाँ, परत कैस हूँ ढंग' । कारन को रँग और-ही, कारज और रंग ।। करता को न क्रिया-फल, जनरथ-ही फल हो । 'विषम' अलँकृत "तीन-विधि',बरनत हैं सब कोइ॥ वि०--"दासजी से पूर्व ब्रजभाषा के अन्य प्राचार्यों ने भी इन्हीं (दासजी) की भांति-'विषम' को असंगति के सदृश तीन प्रकार का कहा है । विषम का अर्थ 'सम' न होना, विषम (परस्पर विरुद्ध) घटना का वर्णन अथवा जैसा वर्णन होना चाहिये, वैसा न होकर-उसके विपरीत या विरोधी का वर्णन करना होता है । अस्तु, कार्य-कारण-संबंधी गुण-क्रियादि दो वस्तुओं का संबंध वा किमी कार्य का फल जैसा होना चाहिये, वैसा न होने पर "विषमालंकार कहा जाता है । स्वभावतः कारण का जो गुण होगा तदनुरूप कार्य का भो वही रूप होगा, किंतु कवि-हृदय जब कुछ चमत्कार के साथ अनुरूप वर्णन करता है तब इस अलंकार का रूप-विषय बनता है, क्योंकि उसका शब्दार्थ-ही ऐसा है । साहित्य में इसके तीन भेद हैं । "प्रथम-अनमिल बातन को जहाँ, परत कैसे-हूँ ढंग (जहाँ बेमेल बातों-वस्तुवों का एक साथ होना कहा जाय), द्वितीय-" कारन को रंग • पा०-१. (का०) (१०) (प्र०) संग...। २. (का०) (सं० पु० प्र०) करता को न किया मुफल, । (१०) सफल । (प्र०) फले । ३. (का०)(२०) (प्र०) विषमालंकृत....