पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/३८८

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काव्य-निर्णय ३५३ भिन्न स्थानों पर रहने वालों की ऐक्यता ( एकाधिकरणकर) दिखलाते हुए चमत्कार उत्पन्न किया जाता है", असंगति में--"एक स्थान पर होने वाले कार्य-कारणों का भिन्न स्थानों में होना वर्णन करते हुए चमत्कार बतलाया जाता है" और विषम में--"कार्य-कारण-संबंधी गुणों और फलों का अनुलप से वर्णन करते हुए उसे चमत्कार पूर्ण बनाया जाता है। अर्थात्-"विरोध में"-"वैय- धिकरण्य वालों का एकाधिकरण होता है।" 'असंगति' में-कार्य-कारण का वैयधिकरण्य होता है" और विषम में विशेष कर उसके तृतीय भेद में, कार्य- कारण के विजातीय गुण-क्रिया का योग चमत्कार-पूर्ण होता है। संस्कृत-ग्रंथों में विषम के प्रथम तथा तृतीय भेदों में पूर्वापर का, अर्थात् प्रथम को तीसरा और तीसरे को प्रथम मानने का भी उल्लेख भी मिलता है, किंतु स्वभावतः जो क्रम ऊपर लिखा गया है, वही उचित प्रतीत होता है।" अथ प्रथम 'विषम'-"अनमिल बातँन" को उदाहरन जथा- कल' कंचन सौ वो अंग कहाँ, औ' कहाँ ये मेघन-सौ तँन कारो। कहाँ वो कौल-कलो बिकसी-सी, कहाँ तुम सोइ रहौ गहि डारौ।। 'दास जूल्याउ-ही-ल्याउ कहाँ, कछु आपनों-वाको न बीच बिचारौ। वौ कोमल गोरो-किसोरी कहाँ, औ कहाँ गिरि-धारन-पान तिहारौ।।. वि०--"यहां-नायक-प्रति दूती के कथन में "नायिका-नायक" के परस्पर विरुद्ध धर्म वाले वर्षों का-कोमल-कठोर अंगों का, संबंध 'कहां-कहाँ' शन्दों- द्वारा अयोग्य, बे-मेल सूचित किया गया है, इसलिये प्रथम विषम है। प्रथम विषम का उदाहरण "कविवर मतिराम" का भी सुंदर है, यथा- "ऊनौ जू, सूधौ विचार है धों, सो कछु सँममें हम-हूँ ब्रजवासी । मॉनि हैं जो मैंनुरूप कहौ 'मतिराम' भखी ये बात प्रकासी॥ पा०-१. ( का० )( )(सं० पु० प्र०) किल...। २ ( का०) (३०) सी ... (प्र.) मों। ३. (का० रा० पु. ) (अ० मं० ) रंग...। ४. ( का० ) (३०), कहँ रंग कदवनि के तनु कारो। (सं० पु० प्र०) (का० स० पु.) कहँ रंग कंदन सौ...। ५. (का० )(३०) (सं० पु० प्र०) कई सेज कली विकली वा होइ । (रा० पु० प्र०) कहाँ वौ सेज-कली बिकसी... (० म० ) का कौल कली-विकसो वह होर...। ६.(का०) (३०)( प्र०) (०म०) निज 'दास जू! ल्याउ-ही...। ७.(३०) आपने.... (का० ) वह कौल-सी...। ६.(सं० पु० प्र०) (३०) कोरी...।

  • भ० म० (पो०) पृ० २५७ ।

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