पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/३९२

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अथ चौदहकाँ उल्लास अथ उल्लासादि अलंकार बरनन बिबिध भाँति 'उल्लास', 'अबग्या' 'अनुग्याहि गॅनि । बहरयौ 'लेस', 'विचित्र', 'तदगुनों', 'सगुन' 'दास' भँनि ॥ और अतदन', 'पूर्वरूप', 'अँनुन', अवरेखै। 'मीलित" औ 'सामान्य', जॉन 'उनमील',' - बिसेसै ॥ ए होत 'चतुरदस' भाँति के५, अलंकार सुनिएँ सुमति । सब [न-दोष-प्रकार गुनि', किएँ एक-ही ठौर थिति ॥ वि०-"दासजी ने इस उल्लास में चौदह (१४) अलंकारों जैसे-उल्लास, अवज्ञा, अनुग्या, लेश, विचित्र, तद्गुण, स्वगुण, अतद्गुण, पूर्वरूप, अनुगुण, मीलित, सामान्य, उन्मीलित" ओर विशेष" का वर्णन किया है। संस्कृत- अलंकार-ग्रयों में-'उल्लास और अवजा" को "वर्णन-वैचित्र्य-प्रधान "लेश-अनुज्ञा" को "तर्क-न्याय मूलक", "विचित्र-विशेष" को "विरोध-मूलक" और बाकी के अन्य अलंकारो -"तद्गुण, स्वगुण, अतद्गुण, पूर्वरूप, अनु- गुण, मीलित, सामान्य और उन्मीलित" को "लोक-न्याय मूलक' श्रेणी में विभाजित किया गया है। दासजो द्वारा इन चतुष्टय-रूप में विभाजित अलंकारों को एक ही शृखला में - उल्लास में, वर्णन करना उनके प्राचार्यत्व का निर्देशक है, क्योंकि उक्त अलंकारों का संस्कृतानुसार विभिन्न वर्गी होते हुए भी उनके विषयों में साम्यता अधिक है।" ऊपर लिखे-'उल्लासादि" अलकार संस्कृत के पुगने अलकार-ग्रंथों में नहीं मिलते। सर्व प्रथम प्राचार्य रुद्रट ने . "तद्गुण, पिहित और विशेष तीन अलंकारों की उत्पत्ति की और मम्मटजी ने 'अतद्गुण' नामक नया अलंकार रचा। इनके बाद पीयूषवर्षी श्रीजयदेव के 'चंद्रलोक' में-"अनुगुण, अवशा, उन्मीलित, उल्लास" और "पूर्वरूप" नाम के पांच अधिक अलकार पाये जाते हैं। श्रीअप्पय दीक्षित ने भी इन ऊपर लिखे नौ (E) अलकारों का पा०-१. (३) भवग्यानुग्या हो...(प्र०) अनुभग्या...। २.(०) पुरस्वरूप...। ३. (का०) (३०) (प्र०) मिलित...। ४.(का०) (३०) (प्र०) उम्मिलित ... ५. (का०) (३०) बो...। ६. (का०) (प्र०) सब गुनदोषादि प्रकार गनि, कियो...। ७.(०) कियो...।