पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/३९४

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काव्य-निर्णय ३५६ गुण, दोप से दोष,गुण से दोष और दोष से गुण बन जाते हैं। दासबी ने. इन चारों के उदाहरण--"गुण से गुण, गुण से दोष, दोष से गुण और दोष से दोष नाम से दिये हैं | दासजी ने उल्लास को 'अप्रस्तुत-प्रशंसा' और अर्थातर- भ्यास से अनुप्राणित मान इसका पांचवां भेद संकर रूप भी मानकर उसका भी उदाहरण दिया है। __उल्लासालकार को कुवलयानंदकार ( संस्कृत ) ने, श्री जयदेव के कथना- नुसार भेद-रहित स्वतत्र अलंकार माना है । उद्योतकार ( संस्कृत ) ने उल्लास के प्रथम-द्वितीय भेद तो माने हैं, तृतीय-चतुर्थ भेदों को 'विषम' अलंकार के अंत- र्गत बतलाया है । कुछ श्राचार्य इसे 'काव्यलिंग' के भीतर-ही गणना करते हैं। पूर्व-कथित ( तेरहवाँ उल्लास ) 'असंगति' अलंकार के प्रथम भेद से इस ( उल्लास ) के प्रथम-द्वितीय भेद मिलते-जुलते हैं, पर असंगति में कार्य-कारण का और उल्लास के उक्त भेदों में प्राकृतिक गुण-दोपों का संबंध होता है। पंचम विभावना और उल्लास के तृतीय-चतुर्थ भेदों के उदाहरणों में भी बहुत कुछ साम्यता पायी जाती है, किंतु विभावना (पांचवीं) में विलोमी कारण से कार्य की उत्पति होती है और उल्लास में क्रमशः “एक के गुण से दूसरे को दोष तथा एक के दोष से दूसरे को गुण की प्राप्ति होती है। अथ प्रथम उल्लास-“गुँन ते गुंन" को उदाहरन जथा- औरॅन'के गुन और कों-गुन “पैहलौर "उल्लास"। "दास' सँपूरन चंद लखि, सिंध-हिऐं उल्लास' ॥" ____ पुनः उदाहग्न जथा - कह्यो देवसरि प्रघट है, 'दास' जोरि जुग-हाँथ । भयो सोय तुब न्हाँन ते, मेरौ पाबन पाथ' ॥ वि०-"उल्लास के प्रथम भेद "गुण से गुण" का उदाहरण ग्वाल कवि- कृत भी सुंदर है, यथा- "गेह में लगे हैं, तिय-नेह में पगे है पूर-क्षोभ में जगे हैं, भदेह तेह समुना । कुटिन-कुंदगन में, करन के संगैन में, एके रति-गॅन में नर्गन ते मुनौ । 'ग्वाल कवि' भनत गरूर-भरे प्रति पूर, जानिए जरूर जिन्हें काहू को गैमुना । और करें ते हरि-जोक में और करें, बैहर तिहारी के खखैया मातु जैमुना। पा०-१. ( का० ) (३०) (प्र० ) औरै...। २. (का) (३०) पहिले...। ३. (का० ) (40)(प्र. ) हुल्लास । ४.(३०) साथ।