पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/३९६

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काव्य-निर्णय ३६१ मथ चतुर्थ उल्लास-"और के दोष ते और कों दोष" जथा- "उल्लासै" जहँ और के, दोष और को दोष । “भऐं संकुचित-कॅमल-निस, मधुकर लहयौ न मोष ॥" वि०-"चतुर्थ उल्लास-"और के दोष से और को दोष-प्राप्ति" का उदाहरण कवि श्री विहारीलाल का यह दोहा भी सुंदर है, जैसे-- "संगति-दोष लग सबैन-कहे ते साँचे बॅन। कुटिल-बंक भों-संग ते, भए कुटिल-गति नेन ॥" महाबीर प्रसाद मालवीय ने स्वसंपादित "काव्य-निर्णय" में जो वेल्ड- वीयर प्रेस प्रयाग से प्रकाशित हुआ है, इस चतुर्थ उल्लास के लक्षण-उदाहरण को तृतीय उल्लास का लक्षण - उदाहरण माना है, अर्थात् क्रम-विपर्यय किया है- ___ अथ “संकर-उल्लास" लच्छन जथा- 'अप्रस्तुत परशंस' जहूँ, औ अरथांतरन्यास । तहाँ होत अनचाँहिं-हू, बिबिध-भाँति उल्लास' ।। अस्प उदाहरन जथा--- है, इहि तो बँन-नु को जो, लखिए' सह-गाँठ असार कठोरै । 'दास' ए आपस में इहि भाँति, करें रगरौ जिहिँ पाबक दौर ।। आपॅन-हूँ कुल-संकुल जारि, जराबत है सहबास के औरै । हे जग-बंदन, चंदन तोहि, पिनास कियौ नि ठौर-कुठौरे । अथ “अबग्या-अलंकार लच्छन जथा- औरें के गुन और कों-गुनँन 'अबग्या' पाइ। "बड़े हमारे नेन तौ, तुम्हें कहा जदुराइ॥" वि०-"किसी एक के गुण-दोष से किसी दूसरे को गुण-दोष प्राप्त न होने पर "श्रवज्ञा" अलंकार कहा जाता है। अवज्ञा पूर्वोक्त अलंकार "उल्लास" का विरोधी है । उल्लास में अन्य के गुण-दोषों को अंगीकार किया जाता है, यहां (अवशा में) नहीं। पा०-१.(का०) लखि ऐसी असाह...(०) (सं० पु० प्र०) लखियै सो सगांठि असार.... (प्र०) लखि ये सह...। २. (का०) (60) (प्र०) रे...। ३, (का०) ३०) इहि.... ४ (२०) सो....