पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/३९७

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३६२ काव्य-निर्णय ___ अवज्ञा अलंकार को सर्व प्रथम 'जयदेव' ने 'चंद्रालोक' में तथा अप्पय दीक्षित ने 'कुवलयानंद' में स्थान दिया है-निर्माण किया है । अवशा के प्रति कुछ प्राचार्यों का कथन है कि यह (अवज्ञा) अलंकार स्वतंत्र न मानकर "विशेषाक्ति" के अंतर्गत मनाना चाहिये, क्योंकि विशेषोक्ति की भाँति अवज्ञा में भी कारण के होते हुए कार्य का अभाव दिखलाया जाता है। संस्कृत-अलंकार प्रयों में अवज्ञा के - "गुण से गुण के न होने में" तथा "दोष से दोष के न होने में दो भेद माने हैं। दासजी ने दो भेद और-दोष से गुण के न होने तथा गुण से दोप के न होने-रूप में भी माने हैं तथा इनके सुंदर उदाहरण दिये है, इत्यादि ..." उदाहरन जथा- निज सुघराई को सदाँ, जतन करें मतिमान । पितु-प्रबीनता' को गरब, करिबौ कोंन सयाँन ।। वि०-"प्रथम अवज्ञा-"गुण से गुण की अप्राप्ति" का उदाहरण 'मति- राम' विरचित भी सुंदर है, यथा- "मेरे हग-बारिद वृथाँ, बरसत बारि-प्रवाह । उठत न अंकुर नेह कौ, तो उर-ऊसर माह ।' अथ द्वितीय 'अबग्या'-और के दोष सों और कों दोष न होंनों जथो- औरें दोष न' और कों, दोष 'अवग्या' सोउ। “मूद सरित डारें सुरा, भूलि न त्यागत कोउ॥" पुनः द्वितीय उदाहरन जथा- पाक औ कँनक-पात तुम जो चबाबत' हो, तौ खट-रस-बिजन न केहूँ भौति लटि गौ। भूषन-बसँन कीने ब्याल-गज खाल को तो, साल-सुबरन को न धारिबौ उलटि.गौ । पा०-१. (३०) प्रबीन ताकी...। २. (का०) ३०) (प्र०) कीवो ..। ३. (का०) (a) दोन और के। ४. (का०) (३०) (प्र०) चात... ५. (३०)को...। ६. (का०) (प्र०) कीन्हों...। ७. (का०) ३०) पेन्हिवी...। (रा० पु. नी० सी०) परियो...1 . (सं० पु० प्र०) उसटि....