पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/४००

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काव्य-निर्णय अथ लेसालंकार-लच्छन उदाहरन बरनन जथा- जहाँ दोष गन होत है, 'लेस' वहीं सुख-कंद । "छीन-रूप है द्वैज-दिन, चंद भयो जग बंद ॥" वि०"जहाँ दोष को गुण-रूप में" और "गुण को दोष-रूप में' जैसा दास जी ने श्रागे कहा है-"ऍनों दोष हे जात है, 'लेस-रोति यै और" उक्तिवैचित्र्य से कल्पित किया जाय, वहाँ लेश के विषय बनते हैं। लेश का शब्दार्थ- 'अंश, भाग, तुच्छ और छोटा (अल्प) होना कहा गया है, अतएव यहाँ किसी गुणवालो वस्तु के अंश-विशेष में दोप तथा दोषवालो वस्तु के अंश-विशेष में गुण दिखलाया जाता है। अथवा किसी वस्तु को तुच्छ दिखलाना लेशालंकार का विषय है। लेश को व्याज-स्तुति, उल्लाम और अवज्ञा से प्रथक् बतालाते हुए अलंका- राचार्यों का कथन है---व्याज-स्तुति में प्रथम प्रतीत होने वाले अर्थ के विपरीत, स्तुति के शब्दों से निंदा अथवा निंदा के शब्दों से स्तुति का तात्पर्य होता है, लेश में यह बात नहीं है। यहाँ दोष को गुण वा गुण को दोष रूप में किसी अंश विशेष के द्वारा मान लिया जाता है । उल्लास में 'एक का गुण-दोप दूसरे को प्राप्त होता है और लेश में गुण-दोष को वा दोष-गुण को उनके विपरीत दोष-गुण में कल्पित किया जाता है । अवज्ञा ओर लेश के प्रति कहा जाता है- "अवज्ञा में उत्कट गुण की लालसा से दोप वाली वस्तु को इच्छा की जाती है तथा लेश में दोष वाली वस्तु में गुण अथवा गुणवाली वस्तु में दोष कवि-कल्पना द्वारा किया जाता है। प्रथम लेश का उदाहरण "मतिराम" कवि-कृत भी सुदर है, यथा-- कत सजनी के अनमनी, भंसुवा-भरति ससंक। बड़े भाग नँदलाल सों, झूठे-हुँ लगत कलंक ॥" अथ प्रथम 'लेस' को पुनः उदाहरन जथा- ललित लाल मुख-मेलि के, दियौ गॅमारिन' फेरि । लीलि न लीन्हों ये बड़ौ, लाभ' जौहरी हेरि ॥ वि०-"प्रथम लेश के उदाहरण स्वरूप विहारीलाल का यह दोहा भी विशेष प्रसिद्ध है, जथा- पा०-१. (प्र० ) वहै...! २. ( का० ) (३०) (प्र०) गँवारन...। ३ (३०) लाल...1