पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/४०१

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काव्य-निर्णय "चित पित-मारक-जोग गुंनि, भयौ भएँ सुत सोग । फिरि हुलस्यौ जिय जोयसा, सँममें जारज-जोग । अथ द्वितीय लेस “गुन ते दोष" का लच्छन उदाहरन जथा- "गुनों दोष है जात हैं, लेस-रोति ये और । "फलें सुहाए मधुर फल, ऑम गए झकझोर ॥" वि०-"द्वितीय लेश के उदाहरण-स्वरूप भी कविवर विहारीलाल का यह दोहा सुंदर है, जैसे- "कहा कहां वाकी दसा हरि प्रानन के ईस । विरह-ज्वाल जरिबौ लखें, मरिबौ भयो असीस ॥ नायिका के विरह-ज्वाला में नित्य-प्रति जलने से उसके मरने को-दोष से गुण की, श्राशीष मानती है, क्योंकि विरह-ज्वाला से जलने में दुःखाधिक्य है। उर्दू के प्रसिद्ध कवि "वर्क लखनवी" ने भी यह बात-विहारीलाल की तरह कही है, जैसे- "अब ये हालत है कि फुरकत में एवज जीने के। मेरे मरने की मुझ, लोग दुमा देते हैं। और श्री लच्छीराम जी इसी लेश में लपेट कर कहते हैं- "बूझी में-"गैया हमारी कहाँ", बछरा में रौ वो बाँसुरी बारी । बोलिबौ हाइ गरें परयौ यों, 'लछिराँम' कयौ फिरि बोलि निहारो॥ माहर है विचल्यो मग में हठ, साँकरे - घूघट घेर उघारौ। वै छिगुनी को छला-छन में, मैंन-मानिक ले गयौ लूटि हमारी॥" प्रताप कवि का लेशालंकार-संयुक्त नवोढा-नायिका का वर्णन तो और भी सुंदर है, यथा- "पिय-मॅन-मानि नबेली सुख-दाँनि निज-रूप की छटॉन रति-रंभा-निदरति है। सुदर सरूप सॅन सैहैज सिंगारॅम सों, भंगन मॅनूप दूति दूनी उपरति है। कहै 'परताप' मनि-मंदिर मयक-मुखी, मुख कै मलीन डर सकै धरति है। पीठि दै लुगाइन की दीठे बचाइ, ठकुराइन सु नाँइन के पाइन-परति है ॥" यहाँ "नायिका का केलि मंदिर में जाना गुण था, पर दुःख-दोष प्राप्ति की झलक से द्वितीय लेश प्रकाशित हो रहा है।"