पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/४०८

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काव्य-निर्णय २०३ और द्वितीय का- "राजहंस नित रहत है, गंग-जमुंम की धार । घट-ब नहिं सेतता, रहे एक अनुसार " -अलंका-रत्न ये दोनों उदाहरण 'साहित्य-दर्पण-संस्कृत' के निम्न श्लोकों के अनुसार "हंस सांग रागेण भूतेऽपि हृदये मम । गुणगौर निषण्णोऽपि कथं नाम न रज्यसि ॥" और- गांगमंबु सितमंबु यामुनं कज्जलाभमुभयन्त्र मज्जतः । राजहंस तव सैव शुभ्रता चीयते न च न चापचीयते ॥" यहाँ, 'गजहंस'-रूप उस महापुरुष से तात्पर्य है जो-'गंगा-सम शुभ्र-सज्जन- मंडली तथा यमुना-सदृश काले गुण-संयुक्त दुर्जन-मंडली के मध्य रहकर भी इन दोनों के भले-बुरे प्रभाव में न पाकर अपने स्वरूप और निश्चय पर अटल रहता है। सा० द०-५० शालिग्राम)। ____ इन दोनों उदाहरणों के प्रति अलंकाराचार्यों का कहना है-ऐसे उदाहरण तो विशेषोक्ति के अंतर्गत भी श्रा जाते हैं, क्योंकि विशेषोक्ति में-"कारण के रहते कार्य का न होना वर्णन किया जाता है । किंतु यहां दोनों उदाहरणों में केवल कारण रहते कार्य का अमाव-मात्र नहीं है, अपितु अन्य का गुण-ग्रहण संभव होते हुए भी ग्रहण न करना यह विशेष चमत्कार है, जो इस (अतद्गुण) की विशेषता है। तद् और अतद्गुणालंकारों का विषय उल्लास और अवशालंकारों से भी टकराता हुआ कहा जाता है, क्योंकि उल्लास-अवज्ञा में भी "एक के गुणःदोष से दूसरे का गुण-दोष संयुक्त होना ( उल्लास ) तथा एक के गुण-दोष दूसरे के लिए गुण दोष का न होना (अवशा) कहा नाता है । अस्तु, इन दोनों (उल्लास-अवज्ञा) से इन दोनों (तद्-अतद्) का प्रथकत्व यह है कि वहां (उल्लास-अवज्ञा में) गुण-शब्द दोष का प्रतिपक्षी है - विरोधी है । वहाँ एक के गुण-दोष अन्य स्थान पर होने-न-होने में उसा के गुण-दोषों का मिलना-न-मिलना भर नहीं है, अपितु सदगुरु के उपदेश-द्वारा अच्छे-बुरे शिष्यों में जिस प्रकार ज्ञान को उत्पत्ति-अनुत्पत्ति होती है, उसी प्रकार उसके गुण-दोष से उत्पन्न होने वाले दूसरे प्रसिद्ध-गुण-दोषों का होना न होना और तद्-अतद् में 'गुण' शब्द दोष का प्रतिपक्षी न होकर खालिश रूप-