पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/४१२

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३७७ काव्य-निर्णय अथ मिलित औ सामान्य अलंकार लच्छन जथा- 'मीलित' अँनिऐं अँह मिले, छीर-नीर' केन्माइ। है 'साँमान्य' मिलै जंह, हीरा-फटिक सुहाई ॥ वि०-"दासजी ने इस एक दोहे-द्वारा "मीलित" ( जहाँ दो वस्तुएँ क्षीर- नीर-दूध-पानी की भांति मिल जाय, एक रूप हो जाय ) और "सामान्य" (जहाँ सादृश्य के कारण दो विशेष पदार्थों में-हीरा-स्फटिक की भांति भेद लक्षित न हो ) रूप दो अलंकारों का वर्णन किया है। ____मीलित-अलंकार ( जहाँ समान धर्म-गुण वाली विभिन्न वस्तुएँ एक दूसरे में मिलकर ऐसी विलीन हो जॉय कि उनमें भिन्नता ज्ञात न हो) का सर्व प्रथम रुद्रट ने, भोज ने, मम्मट ने और तत्पश्चात् रुय्यक ने अपने-अपने ग्रंथों में उल्लेख किया है । इनसे पूर्व भट्टि, भामह, दंडी, उद्भट और वामन-श्रादि अलंकार-श्राचार्यों ने इसका वर्णन नहीं किया है । सामान्य का मम्मट और रुय्यक ने-ही वर्णन किया है । इन रुद्रट-भोजादि के बाद इन दोनों अलंकारों (मीलित-सामान्य) का प्रायः सभी ने वर्णन किया है। साहित्य दर्पण (संस्कृत) में 'मीलित' का लक्षण-"मीलितं वस्तुनो गुतिः केनचित्तुल्यलक्षणाः" (किसी तुल्य-लक्षण वाली वस्तु में वस्तु का छिप जाना) और 'सामान्य' का-"सामान्य' प्रकृतस्यान्यताद.मं सदृशैर्गुणैः" ( सहस गुणों के कारण प्रकृत वस्तु का अन्य वस्तु के साथ भेद प्रतीत न होना-तदात्मरूप हो जाना) लक्षण दिया है और साथ ही लिखा है-मीलित में तुल्य-लक्षणवाली वस्तु कहीं स्वाभाविक होती है और कहीं बाहर से श्राई हुई । इसी प्रकार 'सामान्य" के प्रति आपका कथन है-"मीलित में उत्कृष्ट और निकृष्ट गुणवाली दोनों वस्तुएँ छिप जाती है और 'सामान्य' में दोनों-दो वस्तुओं का समान गुण (धर्म) होने कारण भेद प्रतीत नहीं होता । मीलित में गोपन होता है, सामान्य में तादात्म्य इत्यादि...। सामान्य का चंद्रालोककार ने सुंदर लक्षण लिखा है । आप कहते हैं-- "सामान्यं यदि सादृश्याभेद एव न लपते", अर्थात् सामान्य उसे कहते हैं जहां समानता-जनित भेद-ही न रहे-भिन्नता-ही लक्षित नहो, रूप्य-रूपक नीर- क्षीर से एक हो जाय। संस्कृत-ग्रंथों में मीलित और सामान्य के वर्गीकरण में भी विभिन्न मत है। कोई 'मीलित' को 'वास्तव' में, कोई 'संसर्ग-मूलक' में और कोई 'न्याय-मूलक' पा-१. (रा० पु. नी० सी० ) नीर-छौर.... २. (का० ) (३०) (प्र०) सुमाई...1