पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/४५१

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४१६ काग-निर्णय अब तो लख्यौ-ई कर स्याँमा को बदन स्याँम, स्याँम के बदन लागो स्याँमा की टको रहै॥ 'दास' अब स्याँमा के सुभाइ मद छाके स्यॉम, __ स्याँमा स्याँम-सोभा' के पासब-छको रहे। स्याँमा के बिलोचॅन के हैं - रो स्याँम-तारे, मौ स्याँमा स्याँम-लोचन की लोहित लकीर है. वि०--"दासजी की इस अन्योन्यरूप अनुपम कृति पर किसी अशात कवि का यह सुमधुर छंद भी अति प्रशंसनीय है-- "हों मुरली मुरलीधर की लई, मेरी लई मुरलीधर माला । हों मुरली मुरलीधर की धरी, मेरी धरी मुरलीधर माला ।। हों मुरली मुरलीघर की दई, मेरी दई मुरलीधर माना। हों मुरली मुरलीधर की भई, मेरी भए मुरलीधर माला ॥" और "ज्यों-ज्यों तैन-धारा किएँ.", रूप दासजो कथित छंद के मनोहर भाव पर सेठ कन्हैयालाल पोद्दार प्रयुक्त किसी संस्कृत-कवि की सूक्ति का अनुवाद- रूप यह छंद भी सुंदर है, यथा- "छीदी-माँगुरिन पथिक ज्यों, पीवन लाग्यौ बारि। प्रपा-पालिका-हू करी, त्यों-स्पों पतरी धारि॥" यहाँ 'प्रपापालिका' और "छीदी-अँगुरिन" का अर्थ है-'प्याऊ-पिलाने वाली' (स्त्री), तथा छिद्र-छेद-संयुक्त-प्रथक्-प्रथक् अँगुलियों द्वारा बनी रोक, अस्त-व्यस्त उँगलियों से बँधी श्रोक । इसी प्रकार दासजो के उक्त छंद में "तन- धारा" का अर्थ है पतली-धार तथा "बिरली-पोख" का अर्थ है, वही अस्त- व्यस्त उँगलियों से बँधी अोख, जिसमें पानी न ठहरे, बराबर जमीन पर गिरता चला जाय। अन्योन्यालंकार का उदाहरण मुग्लीधर कवि रचित निम्नलिखित छंद भो बहुत सुंदर है, यथा- "पाँनी लै पानि तु उसारति है बार - बार, सुधा-लै प्रनाम तोहि करत सिंधु - नंदनी । तू जत भाखत ले, वो जत नखत नै, तू गहें अलक, वो गहें तम - चंदन । पा०-१. (का० ) (३०) (प्र.) सोभन । ( स० पु० प्र० ) सोम नीके...!

  • का० का० (रा. च० सिं०) पृ०७४ |