पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/४५७

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४२२ काव्य-निर्णय भिमत है, आप भी ऐसे वर्णनों में विनोक्ति मानते हैं। यदि "निरर्थक जन्म गतं...." वाली विनोक्ति को और भी स्फुट रूप में कहा जा सकता है वो, यो जैसे--"सुदर नेत्र, बिना अंजन के और अंजन बिना सुंदर नेत्र के शोभा नहीं पाते"...इत्यादि। __और प्रतिषेध, जहाँ किसी प्रसिद्ध अर्थ (निषेध ) का-किसी विशेष. अभिप्राय से फिर निषेध किया जाय, अथवा जहाँ किसी पदार्थ का प्रसिद्ध निषेध होते हुए भी अभिप्रायांतर से गर्भित पुनः निषेध किया जाय, कहा गया है, क्योंकि प्रतिषेध का अर्थ है-'निषेध' । अस्तु, इसमें जिस बात का निषेध प्रसिद्ध हो उसका-जैसा पूर्व में लिख चुके हैं, फिर निबंध किया जाता है । यहाँ सेठ कन्हैयालाल पोद्दार (अलंकार-मंजरी में ) कहते हैं-"प्रसिद्ध निषेध का पुनः निषेध निरर्थक होने के कारण अर्थातर-गर्मित निषेध में कुछ अधिक चमत्कार होने के कारण ही यह अलंकार पृथक् माना गया है।" ___ प्रतिषेध के- "मोहन-कर मुरली नहीं, है कछु बड़ी बलाइ" जैसे भाष-भूषण के उदाहरण में अलंकाराचार्य 'प्रतिषेध' नहीं मानते, वहाँ वे कहते हैं कि "पूर्व कथित-लक्षणानुसार प्रतिषेध में किसी निषेध का पुनः निषेध किसी विशेष निषेध के प्रतिपादन के विचार से ही किया जाता है, वह यहां नहीं है । यहाँ मुरली का. निषेध कर उसमें 'बलाय' का श्रारोप किया गया है, जिससे यहाँ प्रतिषेध न बन कर 'अपन्हुति' ही कही जायगी। सहोति को प्रथम भट्टि, भामह, दंडी, उद्भट और वामनादि अलंकारा- चार्यों ने, 'विनोक्ति' को मम्मट और रुय्यक श्राचार्यों ने तथा प्रतिषेध को चंद्रा- लोककार ने सर्व प्रथम माना है । सेठ कन्हैयालाल पोद्दार अपनी अलकार-मंजरी की भूमिका में, इस प्रतिषेध के जनक अप्य दीक्षित को जो चंद्रालोक रचयिता के समय से बाद के हैं, मानते हैं। साथ-ही टिप्पणी में नोट देते हैं कि यह अलं- कार 'यशस्क कृत अलंकारोदाहरण' में भी है। पोद्दार जी का यह उल्लेख उपयुक्त नहीं है, क्योंकि चंद्रालोक में प्रतिषेध का उदाहरण यों दिया गया है- "प्रतिषेधः प्रसिद्धानां कारणानामनादरः।" --तृ० म०५ वाँ श्लोक जिससे शात होता है कि उक्त अलंकार के जनक अपग्य दीक्षित की नहीं, चंद्रालोक-कर्ती पीयूषवर्षी जयदेव है। सहोक्ति को रुद्रट ने "श्रौपम्य वर्ग में, रुय्यक और उनके शिष्य मंखक ने सहोक्ति के साथ विनोति को भी “गम्यमान औपम्य वर्ग में, जो रुद्रट के प्रौपम्य- वर्ग नाम का ही विशद रूप है, माना है। तत्पश्चात् ये सहोति-विनोकि