पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/४७०

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काव्य-निर्णय ४३५ है.........। यदि ब्रजभाषा के अलंकाराचार्यों के अनुसार लक्षण जो ऊपर दासजी ने कहा है, मान लिया जाय तो "पिहित' के नामायं का कोई चमत्कार नहीं रहता और न सूक्ष्मालंकार के साथ उसकी कोई पृथक्ता-ही प्रदर्शित होती है । यदि दोनों गुण समान हों और एक दूसरे को ढंक लें तब वहाँ मीलित और कारण-वश प्रकट होने पर 'उन्मीलित' बन जाता है । एक उदाहरण जैसे- ___ "बिरह-जनित कृसता सखी, तन-दुति में लिपि जाइ।" यहाँ नायिका के तन-रूप एक-ही आश्रय में कृशता और तन-द्युति दोनों ही हैं और वे असमान भी हैं। तन-द्य ति-द्वारा शरीर की कृशता अाच्छादित है, वह ज्ञात नहीं होती-तन-द्युति के आगे कृशता की ओर दृष्टि-ही नहीं जाती, किंतु नायिका की हरदम सामीप्य रहने वाली सखी ( सहचरी ) बान लेती है । यहाँ कृशता और तन-द्युति समान गुण-संपन्न नहीं हैं, किंतु वे एक दूसरे के विपरीत हैं-पद-तल एवं जाबक की लाली के सदृश समान गुणवाली नहीं हैं । इसलिये इस-"बिरह-जनित."...दोहार्ध में मीलित वा उन्मीलित नहीं कहा जा सकता । सूक्ष्म भी यहाँ नहीं है, क्योंकि सूक्ष्म-लक्षणानुसार यहाँ किसी एक संकेत या रहस्य के समझने की बात इसमें नहीं है।" पिहित अलंकार रुद्रट, मम्मट और रुय्यक-श्राचार्यों ने माना है। अतः इसका उल्लेख रुद्रट-द्वारा 'अतिशय वर्ग' के अंतर्गत लिखा है। रुय्यक ने इसका कोई भी वर्गीकरण ( इसे मानते हुए भी ) नहीं किया है, क्यों नहीं किया ? इसका भी उत्तर नहीं मिलता । बाद में इसका उल्लेख "लोक-न्याय मूल वर्ग में तथा गूढार्थ प्रतीति-मूल वर्ग में मिलता है । पिहित के मम्मट द्वारा मान्य रूप में सेठ कन्हैयालाल जी कहते हैं--मम्मट के काव्य-प्रकाश में इसका कोई उल्लेख नहीं है।" काव्य-निर्णय की किसी-किसो ( हस्त-लिखित ) प्रति में 'पिहित' के स्थान पर "बिहित" नाम भी मिलता है। अस्य उदाहरन जथा- लाल-भाल रंग लाल लखि, बाल न बोली बोल । लज्जित किय' तिन हगन कों, करि साँमुहें कपोल ।। परम पियासी पदम-दृग, प्रबिसी आतुर नीर । अंजलि-भरि पुनि तजि दियौ, पियौ न गंगा-नीर ।। पा०-१. (का०) (३०) (प्र०) (सं० पु० प्र०) लजित कियौ ता दुगन कों, के...। २. (सं० पु० प्र०) परम पपा पदुम-वृगी । ३. (का०) (३०) (प्र०) (सं० पु० प्र०) क्यों....