पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/४७१

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४३६ काव्य-निर्णय अस्य तिलक इहाँ नायिका ने हाथ की लाली सों नोर ( जल ) रकत (लोह) जान्यों, साते नाही पियो...... केलि फैल' में 'दास जू', मॅनि-मै-मंदिर दार । बिन-अपराधे रॅमन कों, कीन्हों चरन-प्रहार ।। अस्य तिलक इहाँ नायिका ने रमॅन (प्रियतम) के संग 'मनि-मदिर' में-(मणि-मंदिर के प्रतिबिंबों में नायक के साथ भ्रम-वश ) भाप-सम और को देख्यौ ताते.... अथ 'जुक्ति अलंकार' लच्छन जथा- क्रिया-चातुरी सों जहाँ, करै' बात कों गोप । ताहि 'जुक्ति' भूषन कहें, जिन्हें काब्य की चोप ॥ वि०-"जहाँ क्रिया-चातुर्य से किसी बात को- गुप्त रहस्य को छिपाया जाय वहां 'युक्ति' भूषण ( अलंकार ) होता है । अर्थात् जहाँ कोई क्रिया कर (श्रांतरिक ) मर्म छिपाया जाय वहाँ यह अलंकार माना जाता है। युक्ति अलंकार का प्रथम उल्लेख चंद्रालोक में ही मिलता है। वहाँ उसका लक्षण-"युक्तिविशेषसिद्धिश्चेद्विचित्रार्थतरान्वयात्" ( दोनों-उपमानोपमेय के संबंध को दिखलाते हुए उपमेय में विशेष चमत्कार दिखलाना) कहा है। यह लक्षण ब्रजभाषा के प्राचार्यों से नहीं मिलता। कोई-कोई ब्रजभाषा-श्राचार्य इसे “गुप्तालंकार' के नाम से भी बोलते हैं।" अस्य उदाहरन जथा- होरी की रैन बिताइ' कहूँ, प्रिय-पीतम भोर-हीं पाबत जोयो। नेकन बाल जैनात मई, जऊ कोप को बीज गयौ हिय-बोयौ । 'दास जू' दै-दै गुलाल की मारन, अंकुरिबौ वा बीज को खोयौ । भाँबते'.-भाल को जाबक, अोठ को अंजन, ही को नखच्छत गोयो । वाल--१. (का०)...कला...। (३०) (प्र०) (सं० पु० प्र०)...फैल हूँ...। २. (का०) (०) (प्र०) (सं० पु० प्र०) बिन पराध क्यों ... ३ (सं० पु० प्र०) गुप्तालंकार । ४. (सं० पु० प्र०) करत...। ५. (सं० पु० प्र०) गुप्त.... ६. (०नि०) बिहाई कहूँ, मठ भोर-हीं भावती आवत ... ७.(का०) (३०) (प्र०) जनाइ... ( नि०) जनाई...1. (प्र.) हित...1६. (का०) (40)(शृ नि०) उहि.... (प्र०) यहि... १० (वे' भावती मोठ को भंजन, माल की जावक, ही को नखच्छत मोयो।

  • नि० (दास ) पृ० ६१, १५१ ।