पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/४९३

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४५८ काव्य-निर्मय को प्रकीर्णक वर्ग में माना गया है । इस प्रकार यहाँ भी नौ अल कारों का वर्णन है। दशम संख्या रूप-'प्रमाण' का विभाजन नहीं मिलता है। ___ संस्कृत तथा ब्रजभाषा के अलंकार-ग्रंथों में इन अलंकारों की मान्यता में बड़ा मतभेद है। संस्कृत में काव्यलिंग उद्भट-वामनादि-द्वारा मान्य, स्वभावोक्ति- भामह, दंडी, उद्भट-द्वारा मान्य, हेतु-भट्टि, दंडी-द्वारा मान्य, उत्तर वा प्रश्नोत्तर -रुद्रट, भोज, मम्मट और रुय्यक द्वारा मान्य, परिसंख्या और प्रत्यनीक-रुद्रट, मम्मट, रुय्यक-द्वारा मान्य, छेकोक्ति और निरुक्ति-अप्पय दीक्षित द्वारा मान्य और स्वभावोक्ति, हेतु, परिसंख्या, प्रत्यनीक, प्रश्नोत्तर, निरुक्ति और काव्यलिंग- पीयूष वर्षी जयदेव-द्वारा मान्य हैं । इस प्रकार इनकी संख्या यहां भी श्राठ बैठती है । लोकोक्ति और प्रमाणाल कारों की यहाँ भी पूछ नहीं है। ब्रजभाषा में भी उक्त-अलंकारों की मान्यता में विभिन्न मत हैं, यथा-प्राचार्य चिंतामणि ने काव्यलिंग, परिसंख्या (उसके विविध भेद), प्रत्यनीक और प्रश्नोत्तर रूप पांच अलंकार माने हैं। आपके बाद प्राचार्य केशव ने स्वभावोक्ति और हेतु नाम के दो-ही अलकार स्वीकार किये हैं । भाषा-भूषण ( जसवंतसिंह) में-काव्यलिंग, छेकोक्ति, निरुक्ति, परिसंख्या, प्रत्यनीक, लोकोक्ति, स्वभावोक्ति और हेतु-अल कारों का माना है। मतिराम ने-परिसंख्या, प्रत्यनीक, लोकोक्ति, छेकोक्ति, निरुक्ति और हेतु को, दूलह कवि ने-काव्यलिंग, छेकोक्ति, निरुक्ति, परिसंख्या, प्रत्यनीक, लोकोक्ति, स्वभावोक्ति और हेतु ये अाट-अलकारों का उल्लेख किया है । अस्तु, ब्रजभाषा में भी दो प्रश्नोत्तर और प्रमाणाल कार नहीं माने गये हैं और जिन्होंने ये माने हैं उनको संख्या नगण्य है।" प्रथम स्वभावोक्ति लच्छन जथा- सत्य सत्य बरनॅन जहाँ', 'सुभावोक्ति' सो जाँन । ता - संगी पहचानिएं, बहु - विधि हेतु, प्रमाँन । जाको जैसौ रूप - गुर्ने, बग्नत ताही साज । ता-सों जाति-सुभाब सब', कहि बरनत कबिराज ।। वि०-"जहाँ सत्य-सत्य का वर्णन हो, अर्थात् जिसका तादृश रूप-गुण और जाति-सुमाव का यथावत् वर्णन हो, वहां 'स्वभावोक्ति' कहते हैं तथा इसके साथी हेतु और प्रमाणालंकार है। पा०-१. (स० पु० प्र०-दि० पु०) तहां...। २. (प्र०)...सुभाव कहि, परनत सप....