पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/४९६

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काव्य-निर्णय वि०- जैसे कि दासजी ने 'स्वभावोक्ति' के दो भेद करते हुए जाति और सुभाव (स्वभाव) के प्रथक्-प्रथक् उदाहरण दिये हैं । यहाँ जाति से मनुष्यादि ही नहीं, पशु-पक्षियों का भी बोलने, चलने, हँसने का यर्थार्थ वर्णन होने पर ही यह अलंकार कहा जायगा। साथ-ही स्वाभाविक रूप में प्राकृतिक वर्णन में भी यह अलंकार माना जायगा। उदाहरणार्थ अश्व और प्रकृति क्रमशः यथा- ___"फरकत, फांदत, फिरत, फिर, तो तुरंग रघुराव।" "चाई छबि स्याँमल सुहाई रजनी-मुख की, रंच पिपराई रही ओर मुररेरे के। कहै 'रतनाकर' उमगि तरु- छाँयाँ चली, बदि अगवानी - हेत भावत अंधेरे के॥ घर-घर साजें सेज अंगनों सिंगारि अंग, लौटत उमंग - भरे बिछुरे सबेरे के। जोगी, जती, जंगम जहाँ-ही-तहाँ डेरे देत, फेरे देत फुदकि विहंगम बसेरे के॥" संस्कृत के अलंकार ग्रंथों में बाल-चेष्टात्रों के स्वाभाविक वर्णन में भी यह अलंकार माना है, उदाहरण यथा- "भोजन करत चपन-चित, इत-उत भौसर पाइ। भागि चले किलकात मुख-दधि-मोन लपटाइ ॥" -रा. च० मा० ( गो० तुलसीदास) अथवा- "नासा-मोरि, नचाइ-ग, करी कका की सोंह। काँटे - सी कसकस हिऐं, गढ़ी कटीली - भोंह॥" "गरी कटीली भोंह, केस निरबारति प्यारी । तिरछी चितवन चितै, मैंनों उर-हनत कटारी॥ कहि 'पठान सुलतान' बक्यौ लखि अजब-तमासा । वाको सहेज सुभाव, और को बुधि-बल-नासा ॥" अथवा- "गदी टोली भोंड, न भूलति कबहुँ भुलाएं। वह चितवनि, वह मुरनि, चलनि, चख-चपल मचाएं।