पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/४९७

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४६२ काव्य-निर्णय प्रौन रहे 'हरिचंद', एक सोहन को भासा । उँन तो बिछुरत-ही, बुधि, बल, मन धीरज-नासा ॥" "गदी कटीली भोंह जीम-सो चुभत सदा-हीं। अव उनके बिन मिलें सखी, जिय मानत नाहीं॥ लाउ बेगि 'हरिचंद', पूरि मैंम कोर्टन-भासा। नाहीं तो ये तन बियोग मो मैंनमय - नासा ॥" स्वभावोक्ति का एक तीसग भेद पं० जगन्नाथ प्रसाद 'भानु'-"जहाँ प्रतिशा- बद्ध कोई बात कही जाय, अथवा किसी बात (कार्य) का-प्रकार का, प्रण किया जाय वहाँ स्वभावोक्ति रूप एक 'प्रतिज्ञालंकार' और होता है, जिसका उदाहरण है- "बारि-टारि डारों, कुंभकरनें-बिदारि डारों, मारों मेघनादै भाज यों बल-अनंत हों। कहै 'पदमाकर' त्रिकूट-ही को ढाहि डारों, डारत करेंई जातुधानन को प्रत हों। अच्छहि निरच्छ कपि रुच्छ है उचारों इमि, तोसे तिरछ-तुर्छन कों कछवं न गंत हों। जारि डारों लकै, उजारि डारों उपवन, ___फारि डारौ रॉमन कों तौ में हनुमंत हों।" किंतु यह सुभाव के अंतर्गत होने से प्रथक्ता की आवश्यकता प्रतीति नहीं होती। केवल-बाल की खाल निकालना-मात्र है । स्वभावोक्ति का पोदार जी ने जो उदाहरण दिया है, वह भी सुंदर है- "मागें धेनु धारि हैं री ग्वालन-कतार तों में, फेरि टेरि - टेरि धौरी - धूमरीन गोंन ते । पोंछि पुचिकारन अंगोंछन सों गैछि-पोंछि, चूंम चारु चरन वलाब सु बचन ते॥ कहै 'महबूम' धरी मुग्ली अधर बर, फूक दई खरज - निषाद के सुरन ते । अमित अनद भरे कद - छबि बृदावन, ___ मद गति पाबत मकुद मधुबन ते ॥" अथ हेतु अलंकार लच्छन जथा- या कारन को है यही. कारज यै कहि देतु । कारज-कारन एक-ही, कहेंजानियतु 'हेतु॥