पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/५१९

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काम्य-निर्णय ब्याकुल प्रॉन फिरत है नेन, हिय पर कान्ह, निरखि महि चैन । बार - बार फिकराबै घटा,-'मली माँइन मू पटा" ॥ "सूनों घर, भिदियन को राज" इक ग्वालिन-घर खबर मगाइ, है-चारक दए सला पठाइ । ग्वाल कयौ घाँ कोऊ नॉहीं, कृस्न कयौ तब चलौ तहाँ-हीं॥ घर में जाइ फंसे गल-गाज,-"सूनों घर भिर्दियन को राज ॥ "नाँचनि निकसी तौ भलें, घूघट काहे देति" चूंघट काहे देति, कहत श्री कुंवर कन्हाई । चोरी ते हरि-पकरि गोपि, जसुमति पै ल्याई ॥ देति उराहँन आइ, मात यै देत हमें दुख । भाइ गए तब नंद, सकुचि करि फेरि रही मुख ॥ मुख-फेरति क्यों ग्वालिनी, कयौ जसोमति चेति । नाँचनि निकसी तौ भलें,-"घूघट काहे देति" ॥ अथवा- "यहाँ देखा सव-ही का अंत, जैसा गदा, वैसाई संत । यै ससार काल का खाजा, जैसाई गद्धा, वैसाई राजा॥" "बाल के आनन-चंद बग्यो नख, आली बिलोकि प्रभा अति हाँसी। प्राज न द्वैज है चंदमुखी, मतिमंद कहा कहैं ए पुरवासी ॥ बापुरौ जोतिषी जानें कहा, भरी मैं कहों जो पढ़ि आई हों कासी। चंद दुहूँ के दुहूँ इक और हैं, आज है हैज औ पूरनमासी ॥" अथ 'प्रत्यनीक'-अलंकार लच्छन जथा- सत्रु-मित्र के पच्छ ते, किऐ बैर औ हेत। 'प्रत्यनीक' भूषन कहें, जे हैं सुमति-सचेत ॥ वि०-“जहाँ शत्र-मित्र के पक्ष से विरोध और प्रीति की जाय वहां, 'प्रत्यनीक' अलंकार कहा जाता है । पा०-१. ( सं० पु० प्र०) सौ...। २. ( स० ० प्र०) जो....