पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/५३९

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काव्य-निर्णय वि०-"दासजी का यह-"बिद्या देति जु बिन को......."चिंतामणि जी कृत कारण-माला के निम्न उदाहरण का अनुवाद जैसा है, देखिये- "विद्या ते उपजै बिनै, बिनै जगत-बस होत । जगत भरें यस धंन मिले, धन ते घरम-उदोत ॥" और ग्वाल कवि कृत पोद्दारजी-द्वारा अपनाया हुश्रा यह निम्न उदाहरण भी अपूर्व है,- "मूल करनी को धरनी पै नर-देह लैबौ, देहन को मूल, एक पालँन सु नीकी है। देह - पलिबे को मूल भोजन सु न है, ___ भोजन की मूल होनों बरखा धनी को है। 'ग्वाल कवि' मूल बरखा को है जजैन - जप, जर्जेन जु मूल बेद - भेद बहु नीकी है। बेन को मूल ग्यान, ग्याँन - मूल तरिबौ त्यों- _____तरिबे को मूल नाम भाँनु - नंदिनीं की है।

अथ उत्तरोत्तर अलकार लच्छन जथा-

एक, एक ते सरल लखि, अलंकार कहि 'सार' । याही को 'उत्तरोत्तर',' कहैं जिन्हें मति-चारु ॥ वि०-"जहाँ एक से एक की सरलता वा सरसता दिखलाई, अथवा बतलाई • बाय वहां 'सार'-अलंकार जिसे 'उत्तरोत्तर' भी कहते हैं, होता है। अर्थात् उत्तरोत्तर उत्कर्ष के वर्णन में यह अलंकार बनता है। साथ-ही उसके अपकर्ष में भी......। __उत्तरोत्तर को जैसा दासजी ने कहा है-'सार' भी कहते हैं और "उदार" भी । अतएव कही हुई वस्तुत्रों में जब क्रमशः एक के बाद धागवाहिक रूप से उत्कर्षापकर्ष दिखलाया जाय-प्रथम कही हुई वस्तु से उसके बाद की कही हुई वस्तु का उत्तरोत्तर ( एक के बाद एक) उत्कर्षापकर्ष वर्णन किया. जाय, वहाँ यह अलंकार होगा। उत्तरोत्तर का अर्थ है-"एक के बाद एक दूसरा" । सार का अर्थ है-"उत्कृष्टता, तत्त्व और उदार का अर्थ है--'सीधा, सरल, दानी, महान् और सीधा-सादा।" इस अलंकार में क्रमशः उत्कृष्टतर वस्तु का कथन प्रारंभ कर उत्कृष्टतम पर उसकी समाति होने के कारण ही इसका नाम "उत्तरोत्तर पड़ा। एक-ही वस्तु पा०-१. (का० ) (प्र. ) उतरोतरै...। (३) (सं० पु० प्र० ) उतरोतरी....