पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/५४१

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काव्य-निर्णय "जहाँ - तहाँ संपति-कथन, सो 'उदार' मैंन म। . जो उपलछन बढ़ेन को, वही वह पैहचान ॥" पद्माकरजी ने उत्तरोत्तर तो नहीं, पर 'सार' नाम से इस अलंकार को मानते हुए इसके तीन भेदों का भी कथन किया है, जैसे- "गुन-हीं सों, के दोष सों के दुहँ सों जिहि थान । एक-एक ते अधिक भैनि, त्रिविध 'सार' यो जॉन ॥ अर्थात् गुण, दोष और गुण-दोष के उत्कर्ष में 'सार' अलंकार होता है। दासजी ने दो ही भेद मान उनके उदाहरण दिये हैं। एक बात और, वह यह कि 'उत्तरोत्तर' वा 'सार' में श्रृंखला-विधान तो "कारण-माला और एका- वली" की ही भाँति का होता है, समान दीखता है, पर कारण-माला में कारण-कार्य का तथा एकावली में विशेष्य-विशेषण का और उत्तरोत्तर ( सार ) में उत्कर्षांपकर्ष का संबंध होता है, अतः तीनों में स्पष्ट अंतर है । जगन्नाथ प्रसाद 'भानु' ने काव्य-प्रभाकर में इन दोनों भेदों का-'अधिक' और 'न्यून' नाम दिया है। प्रथम उदाहरन जथा -- होत मृगादिक ते बड़े बारन, बारन - द पहारन हेरे। सिंध में केते पहार परे, धरतो में बिलोकिए' सिंध घनेरे।। लोकॅन में धरती ऐ किती, हरि-मोदर में बहु लोक बसेरे। तेहरि 'दास' बसें इन नेनन, सब भाँति बड़े हग राधिका तेरे ।। दुतीय उदाहरन जथा- ए करतार, बिने हुँन' 'दास' को, लोकन कौ औतार कगै जिन। लोकन कौ भौतार करौ तो मनुष्षन को जु सँबार करौ जिन। पा०-१. (र० कु०) विराजत... (स० स०) किते परे सिंघ...। २. (का०)(३०) (प्र.) यो...। (र० कु०) इ...। ३. (का०) (३०) (प्र०) वोदर में...I (स० स०) उद्र में के है लोक...! ४. (वे०) (र० कु०) (स० स०)...वसें इनमें...। ५. (का०) (प्र०) एते बड़े...। (a)(र० कु०) (२० स०) सब चाहिं...। ६. (का० प्र०) (र० कु०) सुनो...। ७. (काo. प्र०) (र० कु०) जनि । २. (का०) (३०) (प्र०) मनुष्यन-हूँ को संबार करो...। (का० प्र०) मनुष्यन को तो सबार करो जनि । (२०१०). मनुष्यन ही को सँगार करो जनि । र० कु० ( म० भयोमा) 1.10, 11-नायिका-पीन । सू० स० ( म० दी.) पृ० ३४३-१५४ वर्षमा मां मौक० ग० (००) १०व त.