पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/५४७

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२१२ काव्य-निणय "स्याम को सनेह सो सिंगार, मुसकान हास, __सोक करुनारे परे प्यारे देह भोरी के। रौद्र रतनारे, मॉन-रोस ते निहारे नेक, बीर सौति-मॉन-भंग करन सु जोरी के।। दमन-दबागि देखि भै भौ भयानक सौ, त्यों बिभत्स दीखें अन्य होति धुनों गोरी के ॥ अदभुत अहेरी ऐन, साँत सुनि उधौ-बॅन, नब-रस ऐन नेन नबल किसोरी के ॥ नायक-मिलाप के लिए शुभ दिन बताते-बताते हारजाने वाली सखी की रघुनाथ कवि-विरचित नायिका-प्रति यह उक्ति भी सुंदर है, यथा- पादित-सोम कहो कबहूँ, कबहूँ कही मंगल औ बुध-ही में । बिहफै औ सुक्र-सनीचर कों, कबहूँ कहिवौ मुख-सों नहि रीते॥ मोहि न जाँनि परै 'रघुनाथ' कि भेंट की है दिन कोंन सौ सीतें। आवत-जात मैं हारि परी, तुम्हें बार बतावत बासर-बीतें ॥" यहाँ भी प्रसिद्ध सातों बारों का क्रमशः वर्णन होने से 'रत्नावली' सुदर बन गया है।" अथ परजाइ-अलंकार लच्छन जथा- तजि-तजि आसइ करन ते, है 'परजाइ'-बिलास । घटती-बढ़ती देखिके, कहि संकोच-विकास ।। वि०-"जहाँ किसी कारण से वण्र्य-वस्तु अपना श्राश्रय (आशय) त्याग क्रमशः अन्य का आश्रय ले तो वहाँ पर्याय का विलास समझना चाहिये । यह श्राश्रय-त्याग घट-बढ़ होने के कारण संकोच और विकाशरूप में वर्णन किया जाता है।" कोश-कारों ने पर्याय को “पर्यायोऽवसरेक्रमे" और "श्रानुपूर्वी स्त्रियां वाऽऽ वृत्परिपाटी अनुक्रमः- पर्यायश्च कहा है। इसलिए उक्त अलंकार में क्रम से एक के बाद दूसरी में किमी वस्तु का आश्रय लेना, अथवा अनेक वस्तुओं का एक ही आधार में एक के बाद दूसरी में क्रमवत् स्वतः स्थित होना-किया जाना "पर्याय" का विषय कहा गया है। अर्थात्, 'पर्याय' अलंकार में एक वस्तु को-एक-ही श्राधेय को, क्रमशः काल-भेद से एक साथ नहीं, अपितु एक के पीछे दूसरे-दूसरे आधारों में स्वतः स्थिति होने का-किसी-द्वारा किये जाने का