पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/५५८

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काव्य-निर्णय ५२३ यहाँ-इनकी परिभाषा और उदाहरण स्थानाभाव के कारण नहीं दिये गये हैं। मूल-मात्र के निर्देश से संतोष करना चाहिये।" इस ( देहरी-दीपक ) अलंकार का वर्णन-कथन, संस्कृत और ब्रजभाषा के ग्रंथों में यत्किंचित् रूप से एक-दो कवियों ने ही किया है और इस नाम- श्रेणी में 'विहारी-सतसई' की टीका 'लालचंद्रिका' का नाम लिया जा सकता है। ला. भगवानदीन ने भी इसे अपनाया है । अस्तु इन दोनों स्थानों पर दासजी के उक्त लक्षण को ही ज्यों-का-त्यों उद्धत किया गया है । भारती-भूषण के कर्ता केड़ियाजी के अनुसार यह ‘पदार्थावृत्ति दीपक' का ही संक्षिप्त रूपांतर है, किंतु पदार्थावृत्ति दीपक के जितने भी उदाहरण देखने में आते हैं, या भारतीय. भूषण में केड़िया जी ने दिये है, वहाँ उक्त लक्षणानुसार कोई भी उपयुक्त उदा- हरण देखने में नहीं पाया है।" देहरी-दीपक उदाहरन जथा-- ह नरसिंघ महा मनुजादि हन्यों' पैहलाद को संकट भारी। 'दास' बिभीषन लंक दई, जिन रंक सुदामाँ को संपत-सारी।। द्रोपदी-चीर बढ़ायौ जहाँन में, पांडब के जस के उँजियारी। गरबिन के खनि गरब गिराबत दीनन के दुख श्रीगिरधारी।। वि०-"यहां' हँन्यों, दई, बढायौ और नि" देहरी-दीपक न्याय में दोनों ओर के अर्थों का द्योतन करते हैं। गिराबत शब्द भी इसी प्रकार का है। देहरी-दीपक अलंकार का सुंदर उदाहरण तुलसी कृत मानस की यह सूक्ति भी सरस है, यथा- "बंदों विधि-पद-नु, भौ-सागर जिहिं कीन्ह जहँ । संत-सुधा ससि-धेनु, प्रघटे खल, विष, बारुनी।" यहाँ भी मध्य में उपस्थित 'प्रघटे' क्रिया-शब्द पूर्व के-"संत-सुधा, ससि- धेनु" और उत्तर के "खल, विष, भारुनी" दोनों के अर्थ समानरूप से दिखला रहा है-बतला रहा है।" अथ कारक-दीपक लच्छन जथा- एक माँति के बचॅन कौ, काज बौहौत जहं होइ । 'कारक-दीपक' जानिएँ, कहैं सुमति सब कोइ ।।. पा०-१. (स०पु०प्र०) हत्यो प्रहलाद सौ.। २. (का०) (३०) (प्र०) विमीपर्ने लक दयौ । ३. (का) (३०) (प्र०) की । ४. (का०) (३०) (प्र०) को"। ५.(का०) (१०) (प्र०) बहालत, दीनन को दुख"। ल० सी० (टिप्पणी) १०-१२१ ।