पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/५५९

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५२४ काव्य-निर्णय वि०-"वहाँ एक समान शब्दों का बहुत कार्य हो वहाँ दासजी-मतानुसार 'कारक-दीपक अलंकार' कहा जायगा। अर्थात् जहाँ क्रम-पूर्भक अनेक क्रियाओं का एक ही कारक हो–कर्ता हो, वहां यह अलंकार होता है, यथा- "क्रमकैकगतानां तु गुंफः 'कारक-दीपकम् ।" -कुवलयानंद कारक-कर्ता, कर्म, करण, संप्रदान, अपादान और अधिकरण-आदि छह प्रकार का होता है । अतएव इन छहों में से एक भी यदि बहुत-सी क्रियाओं का कारक है तो वहीं यह अलंकार होगा। पंडितराज जगन्नाथजी ने इसे प्रथक न लिखकर दीपक के अंतर्गत ही भेद-विशेष माना है।" अस्य उदाहरन जथा- ध्याइ तुम्हें छबि सों छकति, जकति', तकति, मुसिकाति । भुज-पसारि चोंकति, चकति, पलकि पसोजति जाति ॥ उठि आपु-ही प्रासन दै रस-ख्याल' सों, लाल सों आँगी कढ़ाबति है। {नि ऊँचे उरोजन दै उर-बोच, भुजॉन' मढ़े भी मढ़ाबति है। रस-रंग रचाइ', नचाइ के नेन, अनंग-तरंग बढ़ाबति है। विपरीति की रीति में प्रौढ़-तिया, चित-चौगुनों चाउचढ़ावति है। वि०-"इन दोनों उदाहरणों में अनेक क्रियाएँ एक कर्त्ता रूप कारक के साथ संबंधित कही गयी हैं। अर्थात् नायिका के साथ वर्णन की गयी है। ___कारक दीपक का उदाहरण सेठ कन्हैया लालजी पोद्दार ने अपनी अलंकार- मंजरी में सुंदर दिया है, यथा- "बता भरी, अब क्या करू, रूपी रात से गर । भै खाऊँ, मांसू. पियू, मन-मारू मखमार ॥" हँसे, रोये, हुए रुसवा, जगे जागे, बंधे, छुटे । गरज हमने भी क्या-क्या कुछ मोहब्बत के मजे लूटे ॥ पा०-१. (३०) जसति...। २. (का०) (३०) (प्र०) (का० प्र०) प्यार"। ३. (सं० पु० प्र०) कढ़ावती"। ४ (प्र०) भुजान के मध्य महा" ५. (सं०पु०प्र०) मढ़ावती"। ६. (का०) (०) (प्र०) (सं०पु०प्र०) (का० प्र०) मचाइ, नचाइ के नेनन, भंग-तरंग...। ७.(सं०१०प्र०) बढ़ावती...| R. (का०) () (प्र०) (२० पु० प्र०) (का० प्र०) चोप"। ६.(सं० पु० प्र०) बढावती"। -का० प्र० (भानु) ५० ५१६ । कारक-दीपक उदाहरण ।