पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/५६१

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५२६ काव्य-निर्णय इसलिये इसका कथन-वर्णन, दीपक के साथ नहीं, एकावली के साथ किया गया है। यहाँ, यह बात ध्यान देने योग्य है कि "एक पद का दो वाक्यों में अन्वय हो जाना-ही दीपक है, वस्तुतः दीपकालंकार नहीं।" उदाहरन जथा- जग की रुचि ब्रज-बास, ब्रज की रुचि ब्रज-चंद-हरि । हरि-रुचि बंसी 'दास', बंसी-रुचि मन-बाँधिबो॥ वि०-"यहाँ एक धर्म रुचि का-जग, ब्रज, हरि और वंशी में होना कहा गया है, इसलिए दीपक और चारों ( जग, ब्रज, हरि, बंसी) का एक दूसरे से श्रृंखला-युक्त रूप में कथन दीपक की माला है । कोई-कोई माला-दीपक को 'कारण-माला-दीपक' भी कहते हैं। भारती-भूषण में केडियाजी ने 'माला-दीपक' की 'माला' का भी उल्लेख किया है और प्रवीणसागर से उदाहरण भी दिया है, यथा- "बात को दीप, दिया को पतंग, पतंग को तेज कहाँ लों जगै है। प्राव को कुद, भौ कुद की फुदैन, कुद को मोंती कहाँ लों रहै है॥ पात को बुदैन, बुंद प्रसून, प्रसून में बास कहाँ लगि चहै है। साधुन-गुंज-प्रवीन तजे तब, प्रॉन कपूर सौ ज्यों उदि जै है।" "इति श्री सकलकलाधरवंसावतंस श्रीमन्महाराज कुमार श्रीवाबू हिंदूपति विरचिते "काव्य-निरनए"दीपकालंकारादि बरननं नाम भष्टदसोल्जासः ॥

  • . का०प्र० ( भानु) पृ० ५२० । अ०र० (०२० दा०)पृ० ४४।