पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/५६२

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अथ उन्नीसवाँ उल्लास गुन-निरनै बरनन जथा- दस-बिधि के गुन कहत हैं, पैहले सुकबि सुजॉन । पनि तीन-हि गुन-गन' रचे, सब तिनके दरम्यान ।। ज्यों सत-जन-हिय ते नहीं, सूरतादि मुन जाँइ । त्यों बिदग्ध हिय में रहैं, दस गुँन सहेज सुभाइ । अच्छर गुँन 'माधुर्य' पुंनि ओज', 'प्रसाद' विचार । समता, कांति, उदारता, दूखन • हरॆन निहार ॥ अरथाब्यक्त, समाधिऐ, भरथे करें प्रकास । बाक्यन के गुन स्लेस औ पुनरुक्ति परकास ॥ वि०-"दासजो ने इस उल्लास में प्रथम दस गुण और इसके बाद इन दसों गुणों का तीन गुण-"माधुर्य, रोज और प्रसाद में समाहार, अनुप्रास-छेक और वृत्त्य, पुनः वृत्तियां-उपनागरिका, पौरषा, कौमला, फिर अनुप्रास-लाट, वीप्सा, यमक, यमक के भेदादि (सिंहावलोकनादि ) तथा इसके अभाव में अलंकारों का वर्णन किया है। ___ संस्कृत-रीति-थों में, जैसा कि दासनो ने कहा है -"ज्यों सत-जैन-हिय ते मही.........." शौर्यादि की भांति रस के उत्कर्ष हेतु रूप स्थायी धर्मों को गुण कहा है, यथा- "ये रसस्यांगिनोधर्माः शौर्यादय इवात्मनः । उत्कर्षहेतवस्तेस्पुरचलस्थितयो गुणाः॥" -काव्य-प्रकाश (८, ८७, ६६) पा-१. (का० ) (३०)हो.... २. ( का० ) (प्र०) तीनें...। (३०) (सं0- पु० प्र०) तीनो...( का०)(३०) गहे रचें...। (प्र.)...रचौ...। ४. (का० ) (३०) .(प्र०) (सं० पु० प्र०) अरु...। ५, (का०) (३०) (प्र०) अरु...। ६. (का०) (40) पुनरुत्तयो प्रतिकास । (प्र०) पुनरुक्ती...।