पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/५६४

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काम्य-निर्णय ५२६ (आपने) गुणों की संख्या द्विगुणित कर दी है। महाराज भोज ने भी “सरस्वती- कंठाभरण" में पूर्व-लिखित दस गुण तो थोड़े-बहुत लक्षण-परिवर्तन के साथ पूर्व-रूप में ही स्वीकार कर लिये, साथ-ही इन्हीं दस गुणों के भेद-स्वरूप चौदह (१४) गुण नवीन माने हैं। बाह्य-श्राभ्यंतर रूप नवीन शब्द और अर्थ गुण जैसे-"उदात्तता, और्जीत्य, प्रेयस् , सु-शब्दता, सूक्ष्म्य, गांभीर्य, विस्तार, संक्षेप, संमित्तत्त्व, भाविक, गति, रीति, उक्ति" और "प्रौढि" तथा आपके वैशेषिक गुण-"असाधु" और "अप्रयुक्त" अनुकरण में, कष्ट-गुण दुर्वचनादि में, अनर्थक गुण यमकादि- श्रलंकार में, अन्यार्थ गुण प्रहेलिका-श्रादि में, अपुष्टार्थ गुण छंद-पूर्ति में, असमर्थ गुण, कामशास्त्रादि में, अप्रतीत गुण विशिष्ट-विद्या-विशारदों के भाष- णादि में, क्लिष्ट गुण व्याख्यादि में, नेयार्थ गुण प्रहेलिकादि में, संदिग्ध गुण प्रसंग स्पष्टादि में, विरुद्ध गुण-इच्छा पूर्वक किये जाने में, अप्रयोजक गुण अपने-श्राप सुदर होने के कारण में, देश्य गुण महाकवियों के प्रयोग में और ग्राम्य-गुण-घृणा, अश्लील तथा अमंगल-दोष में कहे गये हैं। यह गुण-संज्ञा सोलह (१६) है, इसके बाद आप ( भोजराज) ने ग्राम्य गुण के घृणावत् , अश्लील तथा अमंगल-रूप गुणों के तीन-तीन भेद और माने हैं, जिनसे इन वैशेषिक गुणों को संख्या भी चौबोस ( २४ ) बन जाती है । इनके अतरिक्त वाक्य और वाक्यार्थ दोषों पर अाश्रित चौबीस (२४+२४+७२) वैशेषिक गुण और भी आपने माने हैं। कुतक-कथित गुण-नामावली-"श्रौचित्य, सौभाग्य, माधुर्य, प्रसाद, लावण्य" और "अभिजात्य" कही जाती है। ब्रजभाषा-रीति-श्राचार्यों ने तीन ही गुण-"माधुर्य, श्रोन और प्रसाद" माने हैं। परंतु किसी ने दसों का और किसी ने बोस गुणों का जो संस्कृत-साहित्य में कहे गये हैं, उपर्युक्त तीन गुणों में ही समाहार भो कर लिया है । अर्थात् , गुण की दस और बीस-संख्या मानने वाले प्राचार्यों ने केवल संख्या में उल्लेख करते हुए उनका तीन गुणों में ही अंतर्भाव कर लिया है। ब्रजभाषा-रीति-आचार्यों में 'देव' जी ने दस गुणों में अनुप्रास और यमक को लेकर गुणों की संख्या बारह मानी है। दासजी ने दसो गुण-माधुर्य-अोजादि के लक्षण-उदाहरण देते हुए भी तीन-माधुर्य, अोज और प्रसाद गुणों को ही मान्यता दी है, यथा- "मधुर भी भोज प्रसाद के, सब [न है माथीन । ताते ही को गैन्यों, मंमट सुकवि प्रवीब।" -एलादि...