पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/५७०

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काव्य-निर्णय ५३५ अथ 'उदारता' गुन लच्छन जथा- जो अन्वै-बल-पठित है। सँममि परै चतुरेंन । औन को लागै कठिन, गुन-"उदारता" ऐंन ।। वि०-"औरों को समझने में कठिन होते हुए भी, जो अन्वय के बल चतुरों की समझ में शीघ्र श्रा जाय, वहाँ दासजी ने 'उदारता-गुण' माना है। उदारता गुण के लिये अपने काव्यालंकार-सूत्र में वामन ने लिखा है- "अग्राम्यत्वमुदारता" । अर्थात् , ग्राम्यता के अभाव का नाम 'उदारता' है। साहित्य-दर्पण-रचयिता भी-"उदारता अग्राम्यत्वं" (ग्राम्यत्व-विहीन उदारता ) कहते हैं । साथ-ही श्राप कहते हैं कि "श्लेप, समाधि, औदार्य (उदारता) और प्रसादादि जो शन्द-गुण प्राचीनों ने व्यक्त किये हैं, वे अोज के अंतर्गत समा जाते हैं, जैसे- "श्लेषः समाधिरौदार्य प्रसाद इति ये पुनः । गुणश्चिरन्तनरुक्ता प्रोजस्यतर्भवंतिते ॥" –साहित्य-दर्पण ८,६ अथ उदारता गुँन उदाहरन जथा- कदैन अनेकन बिघुन के, एक रदन गँन-राइ' । बंदन-जुत बंदँन करों, पुसकर पुसकर पाइ ॥ अथ ब्यक्त गुन लच्छन जथा-- जासु प्ररथ प्रति-ही प्रघट, नहिं सँमास-अधिकाइ। अर्थ 'ब्यक्त-गुन' बात ज्यों, बोलें सहेज-सुभाइ॥ वि०-"जिसका अर्थ एकदम प्रकट हो, समास की भी अधिकता न हो तथा सहज स्वभाव में कही जाने वाली बात की भांति हो, ऐसे काव्य में “व्यक्ति- गुण" होता है। संस्कृत-साहित्यकारों ने इसका नाम-"अर्थ-व्यक्तिः" माना है । वामनाचार्य ने इसकी व्याख्या करते हुए लिखा है-"अर्थ व्यक्ति हेतुत्वमर्थव्यक्तिः" ( का०- लं. सू०-३, १, २४ )। अर्थात् , अर्थ की प्रतीति ( स्पष्ट और शीघ्र ) का हेतु- पा०-१.(३०) (सं० पु० प्र०) बल । २. ( का०)।०) (प्र.) (सं० पु०- प्र. ) राउ। ३. ( का०) (३०) (प्र०) (सं० पु० प्र०) पाउ । ४. ( का०) (३०) (प्र.) (सं० पु० प्र०) अधिकाउ । ५. (का०) (३०) (प्र.) (सं० पु० प्र०) सुमाउन