पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/५७२

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काव्य-निर्णय ४३७ यहाँ, श्रारोह-अवरोह (चढाव-उतार ) का तात्पर्य-"दीर्घ-गुरु श्रादि अक्षरों के प्राचुर्य को प्रारोह और लघु-श्रादि शिथिन वर्गों के प्राचुर्य को अवरोह" कहने से है । अतएव इनके क्रम (श्रारोह के बाद अवरोह और अवरोह के बाद आरोह ) तथा विपर्यय-अवरोहारोह एवं श्रारोहावगेह में "समाधि-गुण" कहा गया है । यह प्रारोहावरोह-क्रम—षष्ठी तत्पुरुष और द्वद- समास से माना जाता है। अर्थात् क्रम से धीरे-धीरे अारोह और उसी प्रकार क्रम से धोरे-धीरे अवरोह का नाम 'समाधि' गुण है। ____ इस लक्षण के साथ प्रश्न उठता है कि 'श्रारोह' बंध की गाढ़ता और 'अवरोह' बंध के शैथिल्य के-ही रूपांतर है, इसलिये 'अारोह' प्रोज-रूप और 'अवरोह' प्रसाद-रूप होने के कारण समाधि-गुण “ोज-प्रासाद" गुण के अंतर्गत समा जाता है । अतएव इनसे भिन्न उमे मानने को श्रावश्यकता १......... इत्यादि । यहाँ उत्तर में कहा जा सकता है कि अोज और प्रसाद नदी की दो धाराओं के समान पृथक्-पृथक् गुण हैं, अतएव जहाँ वे दोनों स्वतंत्र रूप से, पृथक्-पृथक रूप से बहते हों—उपस्थित रहते हों, वहाँ उनका अपना-अपना क्षेत्र है-मान्यता है, पर जहाँ ये दोनों मिलकर बहते हों-उपस्थित रहते हों- वहाँ 'समाधि गुण' ही श्रीवामना वार्य-वचनात् कहा जायगा । यही नहीं, संस्कृता- चार्य समाधि गुण की पृथक् विदग्धा बतलाने में एक शंका-'-जब कि श्रोज. प्रसाद की पृथक्-पृथक् स्थिति का ही नहीं, किंतु उनके साम्य और उत्कर्षक का भी वर्णन कर चुके हैं और बाद में इन दोनों के मिलाप से एक नया गुण "समाधि" बन जाता है, इस असंगति के सहारे और करते हैं । अर्थात् "अारोह-अवरोह क्रमशः श्रोज और प्रसाद रूप हैं, इसलिये-"प्रारोहावरोहक्रमः समाधिः" यह लक्षण नये गुण मानने में ठीक नहीं है ।" यहाँ भी श्री वामनाचार्य जी का कहना है कि अोज और प्रसाद गुण में यह आवश्यक नहीं कि आरोह-अवरोह अवश्य हों, क्योंकि अवरोह-शून्य रचनाएँ भो प्रसाद गुण-संपन्न होती हैं। इस लिये प्रारोहावरोह होने पर प्रोज-प्रसाद गुणों का होना, अथवा अोज-प्रसाद के होने पर श्रारोहावरोह का होना श्रावश्यक है, यह नहीं कहा जा सकता । पर इनके समन्वय होने पर इस नये गुण सामधि की कल्पना, कल्पना नहीं कही जा सकती (दे०-काव्यालंकरसूत्र-वृत्ति-३,१, म ४,१५,१६,१७,१८,१६)। श्री विश्वनाथ चक्रवर्ती ने समाधि दो प्रकार का-"अयोनि" और "अन्य- च्छाया-योनि" मानते हुए भी-न गुणत्वं समाधे" ( समाधि कोई भी गुण नहीं) कहा है। अयोनि का अर्थ "जिसमें अर्थ की एकदम नयो कल्पना की गयी हो" और अन्यच्छाया-योनि का अर्थ "जिस अर्थ में दूसरे अर्थ की छाया ली गयी